फ़ैशन : अराजक की नई मार्केटिंग – प्रभु जोशी

 

फैशन मुक्ति का एक वक्तव्य है। यह बन्द भारतीय समाज में, एक उद्धारक की भूमिका में ही प्रकट होती है। कभी वह मौन की भाषा में प्रकट होती है। तब वह मूलतः स्त्री को दृश्य में भी बदलती है। और एक सामूहिक पाठ बनाती है, और फिर सपनी विजय के तहत,
एक सार्वजनिक स्वीकृति अर्जित कर लेती है।
पिछले दिनों जो बहस के केंद्र में था, वह ripped jeans का फैशन स्त्री देह को दर्शनीया बनाने वाला था।
लेकिन , कई बार, जुमलों को, भी फैशन गोद ले कर, उनका गोत्र बदल देती है। जैसे अमेरिका में, सेक्समुक्ति के विचार को क्रेज़ बनाने के लिए, टी-शर्ट चले थे। जिन पर छपा था, आय बिलीव इन फ्री-सेक्स/ये सब ‘ यंग ‘ के लिए ही होता है। पैंतीस के पास पहुंचा व्यक्ति, फैशन व्यवसाय के लिए निरुपयोगी होता है। वह मार्केट-फ्रेंडली नही होता है। यह घर और दफ्तर की जिम्मेदारियों से लदी उम्र। का पारिवारिक सदस्य होता है। उसकी, लिप्सा और लपक कम हो चुकी होती है। फैशन उद्योग जानता है, भारत के कमजोर बौद्धिक आधार वाले बावले समाज को किधर भी हांका , जा सकता है। विज्ञापन की दुनिया में एक आप्तवाक्य कि तरह चला, एक जुमला। पंच लाइन। ’60 साल के बूढ़े नहीं, साठ साल के जवान। और भारत के बूढ़े वो सब करने को तैयार, हो गए, जो वे अलबत्ता फैशन और विज्ञापन की दुनिया नहीं होती तो कभी तैयार नहीं होते। बूढा शब्द विज्ञापन की दुनिया ने लज्जास्पद बना दिया है।
कई बार, मुझे दादा जी के उम्र वाले, इस पैराडाइम शिफ्ट के लपेटे में आकर, अपनी पोती को कहते मिलते है, अरे भाई, ये तो मेरी girl friend है…!
वे नहीं जानते कि
अमेरिका में girl freind का अर्थ sex पार्टनर होने के बाद ही संबोधन के रूप में होता है। अब तो क्लास mate को sexmate बनाने का समय आ गया है।
अधेड़ वय को अपना उपभोक्ता बनाये जाने का सब से दिलचस्प उदाहरण, भारत मे लैंगिग्स के मार्केटिंग का है।। वेस्टर्न गारमेंट के ट्रेड सर्वे में एक दिलचस्प तथ्य सामने आया।
जब जीन्स को भारतीय युवती का एकमात्र परिधान बनाया जा रहा था, तो उसका सबसे ज़्यादा विरोध घर मे प्रौढ़ माँओं की तरफ से होने लगा है । चूंकि उन्होंने अपने युवती काल मे जीन्स को नहीं पहना था। इसलिए उनकी मानसिकता , उसे बेटी को पहन ने से इनकार कर रही थी। तब लेगिंग्स की जबर्दस्त मार्केटिंग की गई। और जीन्स से पहले लेगिंग्स , प्रौढाओं का प्रिय परिधान हो गया। वह कपड़े की किस्म के कारण , फ्री-साइज था। प्रौढाओं का कैथार्सिस हो गया। वे धड़ल्ले से सलवार कमीज को, वार्डरोब-निकाला देकर मुक्त हो गई, जीन्स विरोध की
ग्रंथि से। हर जगह व्व पहन के दिखाई देने लगीं।
नतीजतन, इस तरह मॉल्स में प्रौढाओं के देह-दर्शन का , वो पक्ष भी पता चलने लगा कि
इस वय के बाद, शारीरिक श्रम से पीछा छुड़ा कर, मुक्त होने वाली मध्य
वर्गीय स्त्री की ‘अपरूपा काया ‘ की सूचना मिलने लगी। फिटिंग का प्रश्न अंतर्ध्यान था। उस मे, मध्यवर्ग की
वह प्रवृति काम आ रही थी। जब अटैची में, उसके स्पेस की सीमा आ जाये, तब भी उसमे भारतीय गृहणी चार कपड़ों के लिए और जगह , अपनी अप्रतिम कुशलता से निकाल लेती है। फिर लैगिंग्स के कपड़े में तो सब आकार/प्रकार को सामाहित करने का गुण, उसकी तन्यता के कारण सम्भव ही था। स्त्री को ज़द्दो जहद करने की ज़रूरत ही नही थी।
एक भारतीय विदुषी का लेगिंग्स में सड़क पर चलते वाला फोटो लगा कर
फ्रांस की मेरी एक चित्रकार मित्र ने टिप्पणी लगाई, This poor woman does not no these are not paints..!
बहरहाल, उन्हें ये बताया जाना, प्राथमिक लगने लगा कि परिधान की शॉपिंग से अधिक , इस वर्ग की स्त्री के लिए, शारीरिक श्रम की वरीयता समझाना ज़रूरी है।
बहरहाल, लैगिंग्स के
प्रवेश ने युवती के लिए जीन्स के विरोध को शून्य कर दिया। एडोर्नो जिन्होंने कल्चर इंडस्ट्री किताब लिखी है। उन्होंने , एक किताब और लिखी है। भदेस की प्रतिष्ठा में, इन प्रेज़ ऑफ अग्लीनेस।
इसलिए, आप जितनी बेतुकी फैशन करे। वह सब पूर्णतः वरेण्य है।
मूल बात ये है कि इन दिनों ऐसे टी-शर्ट बाज़ार में आ गए है, जिन पर जाट, गुर्जर, आदि जाति सूचक शब्द छपे है। फैशन व्यवसाय, को इस से कोई मतलब नही
कि वो पहले से ही कई स्तरों पर वर्गीकृत भारतीय समाज को, फिर जातिवाद के ज़हर से भरना चाहता है।
प्रश्न उठता है कि क्या इस पर प्रतिबंध लगाने की बात सोची भी जा सकती है..? जब नौकरियों, जनसंख्या , और स्कूल कॉलेजो के फार्मो में , आप से जाति का कॉलम भरवाया जाता है, तब आप जाति सूचक शब्द पर ऐतेराज़ नही उठाते तो आप फैशन उत्पाद को कैसे प्रश्नांकित कर के, उसके विक्रय पर रोक लगा सकते है। जब पगड़ी , सिक्ख समुदाय की पहचान की तरह, धारण करने को रोकना, सम्भव नही तब जाट या गुर्जर शब्द लिखे हुए टी-शर्ट को , कैसे प्रश्नांकित किया जा सकता है..?
आप तर्क देते है, कि
ये सब क्षणिक बुल बुले हैं। कुछ ही दिनों में खत्म हो जाएंगे। मसला खत्म होने की बात नहीं।
फैशन का शाश्वत से ही झगड़ा है। वह बुलबुला का ही जीवन ले कर आती है। व्यवसाय करती है और अंतर्धान हो जाती है। शाश्वत फैशन को निगल जाती है। लेकिन वह विचार को दीर्घायु बना देतीं है। जातिवाद को ज़िंदा तो करेगी ही। भारतीय इतिहास में, फैशन ने सबसे बड़ी भूमिका अदा की थी।
सफेद टोपी औऱ खादी ही थी, जिसका अर्थ था, अंग्रेजों का विरोध करना था।
अतः वस्त्र का विचार से गहरा रिश्ता है। गांधी के ज्योही विचार बदले,
उनके कपड़े बदल गए थे।
प्रभु जोशी

लेखक उच्च कोटि के विचारक हैं। उनका यह लेख प्रबुद्ध जनों के लिए है।
94253 46 356

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