राष्ट्र प्रथम– संविधान की शपथ लतपत – पार्थसारथि थपलियाल

 

हमारे जीवन में शपथ का महत्व उतना ही रह गया है जितनी राजनीतिक जिम्मेदारी लेते हुए संविधान की शपथ। “मैं…..(कोई नाम)… संविधान की शपथ लेता हूँ कि मैं सत्य निष्ठा से… पालन करूँगा”।
शपथ दिलाने वाला शुरू में “मैं” कहता है बाकी शपथ लेने वाला जैसा तैसा कहूँ या ऐसी तैसी कर पूरा पढ़ लेते हैं। शपथ के बाद इसे व्यक्तियों में विष्णु का स्वरूप उभरता है। ऐसा व्यक्ति कभी झूठ नही बोलता, या जो कुछ जनता है समझनेवाला अपने आप अर्थ समझें, लेकिन राजनीतिक व्यक्ति अपवाद स्वरूप ही सच बोलेगा अन्यथा सत्य के निकट कभी नही होता। मन में कुछ, ज़ुबाँ पे कुछ। सच कहूँ तो बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के प्रारूपी संविधान के प्रति शपथ लेने वालों की सत्यनिष्ठा को मैंने सावित्री (सत्यवान सावित्री) के सत जैसे समझा। भला हो मुम्बई पुलिस के सहायक उप निरीक्षक सचिन वज़े का जिसने राष्ट्रीय जांच एजेंसी के सामने इस सत्य की उल्टियां कर अपना पेट हल्का कर दिया।
बात तो मुझे राजनीति पक्ष की भी सही लगी। आखिर एक चुनाव में राजनीति करनेवालों को कितना धन उसे लगाना पड़ता है। तेल तो तिलों में से ही निकलता है, अन्यथा सूखी रेत को घाणी में डाल कर देख लो। सत्ता में आये व्यक्ति की सबसे बड़ी चाह यह होती है वह कुशल व्यक्ति ढूँढा जाय जिस पर शपथ से अधिक विश्वास किया जा सके। ऐसे कई निष्ठावान अनुभवी होते हैं उनकी निष्ठा जनप्रतिनिधि की सत्यनिष्ठा से अधिक होती है। वे भी जानते हैं राजनीति और वैश्या दोनों अपने अपने संदर्भों में सुखदायी हैं। बहुत ही प्रोफेशनल। काम हो जाने पर अज्ञात बन जाने की कला के निपुण होते हैं।
कई बार मुझे लगता है कि कुछ लोग जो अपने घर के बाहर की नाली साफ नही रख सकते वे देश का नाला साफ करने के वादे कर चुनाव जीत भी जाते हैं।
भारत मे चुनाव जीतना या हारना चुनाव लड़नेवाले के चुनावी चरित्र पर निर्भर होता है। बाबा तुलसी ने इस संदर्भ में जहाँ उससे अलग यह बात राजनीतिक खेती पर अवश्य फिट बैठती है कि “का वर्षा जब कृषि सुखाने, समय चुकी पुनि का पछताने”। आचार्य चाणक्य ने संकेत दिया राजनीति में अवसर पैदा करो, अवसर को उद्देश्य में बदलो”। इस देश मे सर्वाधिक कमी राजपुरुषों, राष्ट्रपुरुषों और राजनीतिज्ञों की है। इस दौर में छल बल, कपट और धूर्तता से युक्त व्यक्ति को राजनीतिक कहा जाने लगा है। राष्ट्र विरुद्ध बात करते हैं और नेता बने फिरते हैं। इस देश मे संविधान के नाम पर सत्यनिष्ठा की शपथ लेने वाले अधिकतर महानुभाव जब सत्ता में होते हैं तो सात पीढ़ियों की संपदा एकत्र कर लेते हैं। कोई कोई तो इस कमाई को कृषि उपज बताकर छुटकारा पा लेता है। खेती इनके पुरखों ने कभी नही की। कहते हैं छत पर सब्जी ऊगा लेते हैं अतः यह कृषि उपज की कमाई है। वरना अधिकतर ऊंचाइयां नीचाइयों के प्रमाण होती हैं। केवल एक सहायक उप निरीक्षक से एक माह में सौ करोड़ का काला धन इकट्ठा करवाना बड़े जिगर का काम है। यह ताकत लोकतंत्र में शपथ ग्रहण के बाद मिलती है। लालू बेचारे भैंस के दड़बे में पढ़े तो चारे में कमाई ढूंढ पाए। एक बहुत प्रतापी मंत्री नरसिम्हा राव सरकार में थे वे “राम” की कृपा से “सुख” का आनंद लेते हुए कई संदूक और बोरियों से भरे नोटों के साथ पकड़े गए थे। राजनीति में आनेवाले कुछ लोग कुछ लोग दंगलों में “बंसी” बजाते थे कुछ अत्यंत “मुलायम” थे। कोई “बहन” राजनीति में जन्मदिन मानते हुए चुनावी टिकट बेच गई तो कोई भाई रालेगण सिद्धि के वयोवृद्ध सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे के आंदोलन को दिल्ली में ऐसा पचा गया कि डकार भी नही आने दी। राजनीति में कदम न रखने के लिए बच्ची की कसम भी पचा ली। दर असल में राजनीति की मलाई खाकर चेहरे की रौनक दर्पण की तरह सब बता देती है। राजनीति सेवा करने का नही धन कमाने का यह सबसे आसान तरीका है। सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाए, देश मे अमीरों से नोट और गरीबों से वोट लेकर माननीय बन जाइए। यही तो सैयद शहाबुद्दीन, मुख्तार अंसारी, और आज़म खान जैसे माननीय भी कर रहे थे। सचिन वज़े तो मात्र मोहरा है। सफेद चोला, लाल झोला, खाकी पैंट या काला कोट… सबकी कहानी एक जैसी। नौकरशाह और राजनीति को एक ही हमाम में नंगे नहाते हैं। नही तो एक पटवारी, तहसीलदार, बी डी ओ और ग्राम प्रधान/सरपंच की ऐश्वर्यदायक बंगला महंगी गाड़ी की सफलता का आधार क्या हो सकता है।
मेहनत कर धन अर्जन कर एक वर्ग सरकार को टैक्स देता है। राजनीति चमकाने वाले चुनाव जीतने पर टी वी, मोबाइल, कम्प्यूटर, धोती साड़ी, अंगूठी, मंगल सूत्र, साइकिल, फ्रिज, आदि मुफ्त में बांटने का भरोसा देकर जीत भी आते हैं। सबसे पहले आंध्र प्रदेश में लोक लुभावन नीतियां मुख्यमंत्री एन टी रामाराव के काल मे शुरू हुई उसके बाद तो हर राजनीतिक दल ने इसी रास्ते को पकड़ा। कोंग्रेस नरेगा लायी, गरीब ग्रामीणों को गड्डा खोदने पर लगा दिया, यू पी ए के दूसरे कार्यकाल के अंत मे 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम ले आयी, मगर सबका साथ सबका विकास फॉर्मूला ने कोंग्रेस का रथ रोक दिया। इधर दिल्ली में बेटी की शपथ तोड़ते हुए जी लोग स्वयम को अराजक बता रहे थे वे बिजली पानी, स्वास्थ्य सुविधा को मुफ्त बांटने की शपथ से अभूतपूर्व सफलता प्राप्त किये। अब यही हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गया है।
सरहद पर देश की रक्षा में खड़ा भारत जा सैनिक मातृभूमि की रक्षा कर रहा है। कहीं आतंकवाद का शिकार हो रहा है कहीं नक्सलवाद से लतपत। राजनीति के ठेकेदारों ने शपथ लेकर देश की जनता को अकर्मण्य बना दिया। पहले व्यक्ति मुफ्त का खाना पाप समझता था आज यह अधिकार बन गया। दुर्गम क्षेत्रों में लोगों ने खेती करना बंद कर दिया, गाय पालन बंद कर दिया। राशन सरकार की और अराजकता मन माफिक। राजनीति वाले को अगले चुनाव की चिंता कि अब क्या फ्री किया जाय? इस फ्री के चक्कर मे नागरिक मुफ्तखोर तो हुआ वह भ्रष्ट भी हो गया। यह सब कर दाताओं की से प्राप्त धन के आधार पर होता है। सच्चा नागरिक आज भी ठगा सा दिख रहा पसीने से लतपत है, रक्षक दंगों में खून से लतपत हैं। लोकतंत्र के नाम पर रक्त रंजित राजनीति करने वाले नागरिकता संशिधन अधिनियम के बाद देश मे पैदा हुए शाहीन बाग, दिल्ली दंगे और किसान आंदोलन की परिणीति समझने पर आपकी समझना चाहिए कि हम सब समृद्ध, सुदृढ़ राष्ट्र के बारे में कब शपथ लेंगे जी गंगाजल से पवित्र हो।

(लेखक उच्च कोटि के विचारक, दार्शनिक, भारतीय संस्कृति के शोधार्थी, आकाशवाणी के उच्चाधिकारी पद से सेवानिवृत्त है।)

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