विवाह पद्धतियों में बदलाव के कारण

वीर भौग्या वसुन्धरा

क्या आप इसी योग्य हों ?

इस भारत भूमि पर हमारे पूर्वजों ने कितना दुख झेला है? कितने कष्टों का सामना किया है? कैसी कैसी लड़ाइयां लड़ी है? कितने दुष्टों का सामना किया और कितने ही वीरता से वीरगति को प्राप्त हुए? दुष्टो के आक्रमण के कारण विवाह रात में किया जाने लगा। घुड़चढ़ी की जाने लगी। जिसमें दूल्हे को राजा की तरह सजाया जाता था और उसको युद्ध की तरह तिलक करके भेजना कि दुल्हन लेकर ही लौटना बिना दुल्हन के नही।

इसी सिलसिले में हमारी बहुत सी परंपराएं भी बदल गई। जो विवाह दिन में हुआ करते थे वो अब रात को होने लगे। वैदिक रीति से जो विवाह हुआ करते थे जिन्हें राक्षसों के आक्रमण के कारण रात में किया जाने लगा घुड़चढ़ी होने लगी।

मध्यकाल में तुर्क व मुगल लुटेरे हिंदू लड़कियों को ही नहीं विवाहिता स्त्रियों को भी उठा ले जाते थे ताकि हिंदुओं की जनसंख्या कम हो और आत्माभिमान पूर्णतः समाप्त हो।
अतः बचाव के लिये हिंदुओं ने कई तरीके अपनाये थे जिनमें से कई बहुत बर्बर प्रतीत होते थे परंतु वास्तव में वे प्रतिरोधात्मक उपाय थे-

-कन्या हत्या
-बाल विवाह
विधवा दहन जिसे सतीप्रथा कहकर ‘सती’ शब्द को बदनाम किया गया।

ऐसे खतरनाक युग में स्त्रियों का आना जाना एक बहुत बड़ा खतरा था विशेषतः वधू को विदा करके लिवा लाना।

और तब हिंदुओं ने प्राचीन बारात प्रथा में एक बदलाव किया– #घुड़चढ़ी

दूल्हा केसरिया बाना पहनकर, कलंगीदार पगड़ी से सुशोभित होकर उस दिन के लिये राजा बन जाता था जिसका सिर उस दिन किसी के सामने भी झुकाने की मनाही होती थी।

भगतसिंह यूँ ही अकारण नहीं गाते थे-

“माँ ऐ मेरा रंग दे बसंती चोला”

बस अंतर इतना था कि भगतसिंह “आजादी” नाम की दुल्हन को विदा कराकर लाना चाहते थे।

दूल्हे की माँ उसे अपने दूध का वास्ता देती थी कि दुल्हन को लाये बिना वो उसे दूध नहीं बख्शेगी।

इसके बाद दूल्हे को पीछे देखने की इजाजत नहीं थी कि अब वह या तो दुल्हन के साथ लौटेगा या लौटेगा ही नहीं।

दूल्हे के मित्रों व सशक्त सशस्त्र पुरुषों के सामने बीड़े या हल्दी चावल रखकर चुनौती दी जाती थी कि कौन कौन मित्र और वीर इस दूल्हे के अभियान में इसका साथ देगा।

जो व्यक्ति या उस दूल्हे के मित्र इस चुनौती को स्वीकार करते थे वे भी बारातियों के रूप में इस लक्ष्य में स्वतः दूल्हे के सहभागी हो जाते थे। अब वह ढोल नगाड़ों के साथ मुस्लिम आतताइयों को चुनौती देते हुये राजा की शान के साथ घोड़े पर छत्र व चंवर के साथ निकलता था।

ऐसी न जाने कितनी बारातें कभी वापस नहीं आईं व बाराती दूल्हे-दुल्हन की रक्षा करते करते वीरगति को प्राप्त हुये, कितनी ही दुल्हनों ने डोली के अंदर ही जहरबुझी कटार से ‘जौहर’ किये और न जाने कितने दूल्हे ‘साका’ में अमर हुये। पर उनके बलिदान व्यर्थ नहीं गये। हिंदू जाति ने अपने स्वाभिमान को कायम रखा और आजादी हमें मिली।

पर इस आजादी की कीमत को हम भूल गये।

सुविधाजीवी हिंदुओं ने उन बलिदानों को भुला दिया क्योंकि ये गाथायें गांधीजी द्वारा उस तथाकथित नैरेटिव में फिट नहीं हो पाती थीं जिसे ‘अहिंसा और धर्मनिरपेक्षता’ कहते हैं। इस अवधारणा के अंतर्गत वीरत्व के इतिहास को ‘अप्रासंगिक’ कहकर षड्यंत्रपूर्वक भुलाया गया।

दुष्परिणाम था चापलूसी, अय्याशी और कायरता का उदय जिसे पिछले सौ सालों से ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ के मखमली लिहाफ के रूप में हिंदुओं को ओढ़ाया गया और बाहर से हिंदू लगातार पिटते रहे।

इस कायरता का चरम रूप कल पश्चिमी दिल्ली में देखने को मिला जब दंगे की एक अफवाह के कारण भगदड़ मच गई और एक बारात जो वहाँ से गुजर रही थी, अपने दूल्हे को अकेला छोड़कर भाग गई।

यह भागी हुई बारात हिंदुओं की निकृष्टतम प्रवृत्ति व आंतरिक कायरता का सटीक प्रतीक है।

“कायर और स्वकेंद्रित स्वार्थी कौम मत बनों”

आज का भारतीय बस यही है और इन भारतीयों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं मोदीजी।

ये शरीर से भले इंसान और नाम से भारतीय नजर आते हैं परंतु वास्तव में इनकी चेतना एक कुकुर की बन चुकी है।

*निवेदक :- राघवेन्द्र हिन्दू अधिवक्ता एवं ज्यौर्तिविद ट्रस्टी*
*हिन्दू संरक्षण एवं जीविका सृजन मँच (ट्रस्ट)में सदस्य बनने के लिये संपर्क करे 8574339333*

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