आज भी भारत का वनौषधि विज्ञान बढ़ रहा है। हजारों वर्षों पूर्व इस देश के ऋषियों, मुनियो, मनिषियो, तपस्वियों ने अपनी साधना से इस विज्ञान को अपनी चरम सीमा पर पहुंचाया था। वनस्पतियों की दिव्यता, पवित्रता, विभिन्न रोग चिकित्सा में अमृत समान प्रभावी आदि गुणों को परखकर उसे जनसामान्य के कल्याण के लिये उपयोग में लाने की व्यवस्था एवं परंपरा निर्माण की गयी थी। इन्हीं दिव्य वनौषधियों से समाज स्वस्थ एवं निरामय जीवन व्यतीत करता था।
वनौषधि के दिव्य ज्ञान का प्रचार-प्रसार * करने की स्वाभाविक जिम्मेदारी यहाँ के वैज्ञानिक, आयुर्वेदाचार्य, वैद्यों पर रही है। किंतु दुर्भाग्य से निराशा ही मिली है। आज भी समाज के सभी वर्गों तक इस दिव्य ज्ञान का प्रचार-प्रसार हो इस हेतु कोई विशेष प्रयास होते नहीं दिखते। स्वास्थ्य विषय पर आयोजित विभिन्न संगोष्ठियां (Seminar), कार्यशालायें (work shop) या अन्य भव्य आयोजन प्रायः Academic Interest तक ही सीमित रह जाते हैं। उस ज्ञान को सामान्यजन तक पहुंचाने की कोई व्यवस्था नहीं है। उदाहरण स्वरूप ‘गिलोय’ (Tinospora cardiofolia) को लें। लखनऊ की केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौध संस्थान (सीमैप), मुंबई की Tata Cancer Hospital तथा Bhabha Atomic Research Centre आदि संस्थाओं एवं कई रिसर्च स्कॉलर्स द्वारा गिलोय की जानकारी से भरे सैकड़ों शोधपत्र Research papers प्रकाशित हुये हैं। वे Internet पर उपलब्ध है किंतु ध्यान में आया की आयुर्वेद के स्नातक कई वैद्यों ने गिलोय की बेल प्रत्यक्ष रूप से देखी ही नहीं, सामान्यजनों की बात तो अलग है
इन दिव्य औषधीय पौधों की जानकारी सामान्य जनों को विशेषतः परिवार की दादी माँ को रहती थी। सर्दी, खांसी, बुखार, पेचिश आदि सामान्य व्याधियों के लिये वे स्वयं चिकित्सक के रूप में कार्य करने में सक्षम थी। अपने परिवार को स्वस्थ बनाये रखने के लिये अश्वगंधा, शतावरी, मुसली आदि द्रव्यों का उपयोग वे जानती थी। परिवार में शीत ऋतु में इन औषधीय द्रव्य से युक्त बनाये गये लड्डू का प्रयोग होता था। ये लड्डू प्रसूता के शक्तिवर्धन के लिये अनिवार्य रूप से दिये जाते थे। प्रसूता की चिकित्सा हेतु किये जाने वाली औषध योजना, विभिन्न क्वाथ का उपयोग यह निरोगी सशक्त परिवार हेतु स्वाभाविक व्यवस्था थी। इस व्यवस्था के स्थान पर अब हमारे हाथ में कुछ कैल्शियम, आयरन, विटामिन की गोलियाँ जो स्वयं में ही निरापद नहीं है रख दी गयी है। आज की आधुनिक चिकित्सा पद्धति से भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व परेशान है। यह पद्धति इतनी महंगी हैकि सामान्य जनों के वह पहुंच के बाहर हो गयी है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डॉ. अमर्त्य सेन का कथन है कि भारत के दरिद्र होने के कारणों में यहां कि आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था है। अभी प्रकाशित Times of India के एक लेख में बताया गया कि अपने देश में प्रतिवर्ष 3 प्रतिशत लोग चिकित्सा खर्च के कारण दारिद्रय रेखा के नीचे ढकेल जाते हैं।
इन सारी बिकट समस्याओं का निदान हमारी परंपरागत दिव्य वनौषधियों में हैं। तमिलनाडु में हुये एक सफल प्रयोग में यह पाया गया कि गांवों में इन दिव्य औषधीय पौधों के प्रचार-प्रसार से उन गांवों के नागरिकों का चिकित्सा खर्च लगभग 70 प्रतिशत कम हुआ।
देश में विभिन्न स्थानों पर भी ऐसे कई सफल प्रयोग हो रहे हैं। आरोग्य भारतीय द्वारा स्वस्थ ग्राम योजना अंतर्गत 250 से अधिक गावों में इन औषधीय पौधों के प्रचार प्रसार का कार्य प्रारंभ हुआ है। विद्यालयों के विद्यार्थियों को तथा ग्रामवासियों को उनके उपयोग की जानकारी देने हेतु विभिन्न कार्यक्रम, साहित्य वितरण तथा प्रत्यक्ष इन औषधीय पौधों का रोपण कर उस ग्राम को स्वास्थ्य के दिशा में स्वालंबी बनाने का महत्वपूर्ण कार्य किया जा रहा है। गत वर्ष लगभग 5000 घरों में गिलोय के पौधों का रोपण किया गया। नागरिकों की इस विषय में रूची बढ़ रही है तथा इस कार्य को बहुत अच्छा प्रतिभाग एवं सहयोग मिल रहा है।
वर्तमान समय में प्रकृति – पर्यावरण, आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, योग आदि का महत्व लोगो को समझ आने लगा है। हमारे ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों का ज्ञान – विज्ञान अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसे शोद अनुसंधान द्वारा आगे बढ़ाना होगा।