यदि अमेरिका, जर्मनी और भारत इन तीनों देशों के लॉक डाऊन में तुलना करना हो, तो मैं कुछ बातें विरोधाभासी है।
कई अमेरिकन नागरिकों को लॉक डाऊन मान्य नही है। उसका पालन न करने पर होनेवाले खतरे से भी वे पूरी तरह वाकिफ हैं। लेकिन व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आँच लाए बगैर कोरोना पर नियंत्रण करें, यह उनका मानना है।
नागरिक आंदोलन एवं लगभग हर टीवी साक्षात्कार में उनकी यही माँग रहती है, की जल्द से जल्द लॉक डाऊन खत्म होकर फिर से नियमित रूप से नौकरी एवं व्यवसाय शुरू हो।
वे इसे इस नजरिए से भी देख रहे हैं, कि चीन ने हमारे देश की अर्थव्यवस्था नष्ट करने के लिए ही यह विषाणू तैयार किया है, इसलिए इसे एक विदेशी आक्रमण या युद्ध के तरह लेते हुए अपनी अर्थव्यवस्था को हर तरह से बचाना आवश्यक है, चाहे उसके लिए जनहानि की कीमत क्यों न चुकाना पड़े। चूंकि युद्ध में तो जनहानि अटल है, इसलिए इसे सह कर भी अर्थव्यवस्था मजबूत करके यह युद्ध जीतना जरूरी है, ऐसा इनका मानना है।
जर्मनी से भी लगभग इसी तरह के मेसेज आते हैं।
अर्थव्यवस्था को फिर से किक स्टार्ट कैसे करें, लोगों तक स्टिम्युलस कैसे पहुँचे, भविष्य में भी यदि ऐसे ही वाइरस अटैक हो, तो उससे निपटने के लिए किस तरह का इंफ्रास्ट्रक्चर और सेवातंत्र बनाया जाए, उत्पादन को कैसे निरंतर चालू रखें, इस तरह की बातों पर उनके विचार रहते हैं।
कई कंपनियों ने अब तक अपना ऑफिस स्ट्रक्चर बदल दिया है। एम्प्लॉई के बैठने के लिए प्लेक्सिग्लास लगाकर हर व्यक्ति की को प्राइवेट केबिन कैसे दिए जाए, ताकि आवश्यक सामाजिक दूरी बनाए रख सकें, इस पर काम चल रहा है।
विमान कम्पनियाँ यात्रियों में सुरक्षित दूरी बनाए रखने के उद्देश्य से बैठने की व्यवस्था में आवश्यक बदलाव कर रही हैं।
सुपर स्टोर्स ग्राहकों की सुरक्षितता की दृष्टि से हाँथों पर सॅनिटाइजर का स्प्रे, बिलिंग काउंटर पर आयसोलेशन, व्यवस्थित क्यू के लिए रेलिंग लगाना, सुपर एफिशिएंट ऑन लाईन डिलिव्हरी इत्यादि कई सुविधाएं इन देशों में विगत 30-40 दिनों में कर ली गई है।
इनका एक मात्र विषय, देश और देश की अर्थव्यवस्था किस तरह सुरक्षित रखना, यही होता है। विशेषत: *”लॉक डाऊन में मर्दों के गृहकार्य”* जैसे फालतू विषयों पर जोक आदि कहीं भी देखने को नही मिलते।
इसके विपरीत भारत में क्या हो रहा है?
दारू की बातें, मर्दों के कपड़े धोने और बर्तन माँजने, पत्नी और उसके मायके के फोन, मर्दों के खाना पकाने, सड़कों पर लोक डाऊन तोड़ने पर पुलिस द्वारा पार्श्वभाग पर किया हुआ लाठीप्रहार, मोदी जी, राहुल और अन्य नेताओं पर व्यंग इत्यादि।
अथवा, किसी दुःखद घटना पर क्षुद्र राजनीति, जैसे मजदूरों के अपने गाँव जाने की व्यवस्था पर राजनीति इत्यादि।
एक राष्ट्र, एक समाज की स्वस्थ मानसिकता लेकर, एक होकर इस विपत्ति से कैसे लड़ें, इस पर कोई पोस्ट या मेसेज नही.
कोरोना जाने के बाद फिर से कैसे उठ खड़े रहें, इस पर पोस्ट नही। देश, समाज और व्यक्तिगत नुकसान से कैसे उबरें, इस पर पोस्ट नही।
यदि फिर से कोरोना जैसी महामारी आए, तो हमें उससे निपटने के लिए किस तरह तैयार रहना है, इस पर कोई विचार नही।
दुगुनी कीमत में सब्जियाँ, अनाज मिलें तो उसपर सरकार की ओर से कोई टिप्पणी या कार्यवाही नही, लेकिन दारू न बिकने पर सरकार के रेवेन्यू पर कैसा असर होता है, यह महत्वपूर्ण विषय हो जाता है।
इरफान और ऋषी की मृत्यु पर आश्चर्य व्यक्त करने वाली पोस्ट्स। उनके आखरी वक्त की पोस्ट्स और वीडियोज। इरफान का अंतिम संस्कार कैसे किया, ऋषी की इस्टेट कितनी है,आदि महत्वपूर्ण(?) बातों पर पोस्ट्स।
दोनो ही कॅन्सर के शिकार हुए, लेकिन कॅन्सर से कैसे टक्कर ली जाए इस पर कोई पोस्ट नही।
इसके विपरीत घर में लॉक डाऊन के समय में कौन कौन से मसालेदार व्यंजन बनाए, इस पर ढेर सारी पोस्ट्।
हम और हमारा देश संकट में है, कोरोना के बाद भीषण मंदी आनेवाली है, इसलिए मितव्ययी कैसे हो, जरूरी संसाधनों की कैसे बचत करें इस का कोई विचार नही।
अब दारू के लिए लगनेवाली लाइनों पर महत्वपूर्ण चर्चा आने वाले 4 -6 दिन चलेगी।
क्या मानवीय मूल्यों के दृष्टिकोण से हमारा इस तरह का बर्ताव लज्जास्पद नही महसूस होता?