आज महान स्वतंत्रता सैनानी अनाथ बन्धु एवं मृगेन्द्र दत्त का बलिदान दिवस

2 सितम्बर/बलिदान-दिवस
अनाथ बन्धु एवं मृगेन्द्र दत्त का बलिदान
अंग्रेजों के जाने के बाद भारत की स्वतन्त्रता का श्रेय भले ही कांग्रेसी नेता स्वयं लेते हों; पर वस्तुतः इसका श्रेय उन क्रान्तिकारी युवकों को है, जो अपनी जान हथेली पर लेकर घूमते रहते थे। बंगाल ऐसे युवकों का गढ़ था। ऐसे ही दो मित्र थे अनाथ बन्धु प॰जा एवं मृगेन्द्र कुमार दत्त, जिनके बलिदान से शासकों को अपना निर्णय बदलने को विवश होना पड़ा।

उन दिनों बंगाल के मिदनापुर जिले में क्रान्तिकारी गतिविधियाँ जोरों पर थीं। इससे परेशान होकर अंग्रेजों ने वहाँ जेम्स पेड्डी को जिलाधिकारी बनाकर भेजा। यह बहुत क्रूर अधिकारी था। छोटी सी बात पर 10-12 साल की सजा दे देता था। क्रान्तिकारियों ने शासन को चेतावनी दी कि वे इसके बदले किसी भारतीय को यहाँ भेजें; पर शासन तो बहरा था। अतः एक दिन जेम्स पेड्डी को गोली से उड़ा दिया गया।

अंग्रेज इससे बौखला गये। अब उन्होंने पेड्डी से भी अधिक कठोर राबर्ट डगलस को भेजा। एक दिन जब वह अपने कार्यालय में बैठा फाइलें देख रहा था, तो न जाने कहाँ से दो युवक आये और उसे गोली मार दी। वह वहीं ढेर हो गया। दोनों में से एक युवक तो भाग गया; पर दूसरा प्रद्योत कुमार पकड़ा गया। शासन ने उसे फाँसी दे दी।

दो जिलाधिकारियों की हत्या के बाद भी अंग्रेजों की आँख नहीं खुली। अबकी बार उन्होंने बी.ई.जे.बर्ग को भेजा। बर्ग सदा दो अंगरक्षकों के साथ चलता था। इधर क्रान्तिवीरों ने भी ठान लिया था कि इस जिले में किसी अंग्रेज जिलाधिकारी को नहीं रहने देंगे।

बर्ग फुटबाल का शौकीन था और टाउन क्लब की ओर से खेलता था। 2 सितम्बर, 1933 को टाउन क्लब और मौहम्मदन स्पोर्टिंग के बीच मुकाबला था। खेल शुरू होने से कुछ देर पहले बर्ग आया और अभ्यास में शामिल हो गया। अभी बर्ग ने शरीर गरम करने के कलए फुटबाल में दो-चार किक ही मारी थी कि उसके सामने दो खिलाड़ी, अनाथ बन्धु पंजा और मृगेन्द्र कुमार दत्त आकर खड़े हो गये। दोनों ने जेब में से पिस्तौल निकालकर बर्ग पर खाली कर दीं। वह हाय कहकर धरती पर गिर पड़ा और वहीं मर गया।

यह देखकर बर्ग के अंगरक्षक इन पर गोलियाँ बरसाने लगे। इनकी पिस्तौल तो खाली हो चुकी थी, अतः जान बचाने के लिए दोनों दौड़ने लगे; पर अंगरक्षकों के पास अच्छे शस्त्र थे। दोनों मित्र गोली खाकर गिर पड़े। अनाथ बन्धु ने तो वहीं प्राण त्याग दिये। मृगेन्द्र को पकड़ कर अस्पताल ले जाया गया। अत्यधिक खून निकल जाने के कारण अगले दिन वह भी चल बसा।

इस घटना के बाद पुलिस ने मैदान को घेर लिया। हर खिलाड़ी की तलाशी ली गयी। निर्मल जीवन घोष, ब्रजकिशोर चक्रवर्ती और रामकृष्ण राय के पास भी भरी हुई पिस्तौलें मिलीं। ये तीनों भी क्रान्तिकारी दल के सदस्य थे। यदि किसी कारण से अनाथ बन्धु और मृगेन्द्र को सफलता न मिलती, तो इन्हें बर्ग का वध करना था। पुलिस ने इन तीनों को पकड़ लिया और मुकदमा चलाकर मिदनापुर के केन्द्रीय कारागार में फाँसी पर चढ़ा दिया।

तीन जिलाधिकारियों की हत्या के बाद अंग्रेजों ने निर्णय किया कि अब कोई भारतीय अधिकारी ही मिदनापुर भेजा जाये। अंग्रेज अधिकारियों के मन में भी भय समा गया था। कोई वहाँ जाने को तैयार नहीं हो रहा था। इस प्रकार क्रान्तिकारी युवकों ने अपने बलिदान से अंग्रेज शासन को झुका दिया।

ये वीरगाथा तथाकथित इतिहासकारों ने नही पढाई।

 

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2 सितम्बर/पुण्य-तिथि

चित्र मढ़ते हुए प्रचारक बने मथुरादत्त पांडेय

श्री मथुरादत्त पांडेय का जन्म ग्राम विजयपुर पाटिया (अल्मोड़ा, उत्तराखंड) में श्री धर्मानन्द पांडेय के घर में हुआ था। मथुरादत्त जी छह भाई-बहिन थे। प्रारम्भिक शिक्षा अल्मोड़ा में लेने के बाद इन्होंने बरेली से आई.टी.आई का एक वर्षीय प्रशिक्षण लिया। इसके बाद वे अपने मामा जी के पास लखनऊ आ गये। आगे चलकर इन्होंने अमीनाबाद में श्रीराम रोड पर चित्र मढ़ने का कार्य प्रारम्भ किया। थोड़े समय में ही इनकी दुकान प्रसिद्ध हो गयी।

मथुरादत्त जी उन दिनों कांग्रेस में खूब सक्रिय थे। यहां तक कि जवाहर लाल नेहरू भी एक-दो बार उनकी दुकान पर आये थे। नेहरू जी की खाती स्टेट (अल्मोड़ा) में कुछ सम्पत्ति थी। उसे देखने के लिए वे मथुरादत्त जी को ही भेजते थे; पर 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की विफलता, गांधी जी और नेहरू जी के मुस्लिम तुष्टीकरण आदि से मथुरादत्त जी का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। उन्हीं दिनों एक ऐसी घटना घटित हुई, जिसने उन्हें सदा के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़ दिया।

1945-46 में लखनऊ में कार्यकर्ताओं ने एक अभियान लिया कि सब स्वयंसेवकों के घर पर पूज्य डा. हेडगेवार और श्री गुरुजी के चित्र होने चाहिए। चित्र तो कार्यालय से मिल जाते थे, पर उन्हें मढ़वाने के लिए बाजार जाना पड़ता था। कई स्वयंसेवकों ने मथुरादत्त जी की दुकान पर वे चित्र मढ़ने के लिए दिये। इससे मथुरादत्त जी के मन में इन दोनों महापुरुषों के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उन्होंने कुछ स्वयंसेवकों से यह पूछा। इस प्रकार उनका संघ से सम्पर्क हुआ।

फिर तो वे संघ में इतने रम गये कि दिन-रात संघ और शाखा के अतिरिक्त उन्हें कुछ सूझता ही नहीं था। यहां तक कि उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय ले लिया। उनकी दुकान बहुत अच्छी चलती थी। घर-परिवार के लोगों और मित्रों ने बहुत समझाया; पर उन्होंने वह दुकान बिना मूल्य लिए एक स्वयंसेवक को दे दी और 1947 में प्रचारक बन कर कर्मक्षेत्र में कूद पड़े। इसके बाद वे अनेक स्थानों पर नगर, तहसील, जिला और विभाग प्रचारक रहे। 1948 के प्रतिबंध के समय वे लखनऊ जेल में रहे। भाऊराव देवरस और श्री गुरुजी के प्रति उनके मन में बहुत श्रद्धा थी।

वे बहुत परिश्रमी, स्वभाव के कठोर और व्यवस्थाप्रिय थे। वे अपना छोटा बिस्तर सदा साथ रखते थे। शाखा में सदा समय से, निकर पहनकर और दंड लेकर ही जाते थे। दिन भर में 10-15 कि.मी पैदल चलना उनके लिए सामान्य बात थी। उनके भाषण युवा स्वयंसेवकों के दिल में आग भर देते थे।

मथुरादत्त जी के मन में अपनी जन्मभूमि उत्तराखंड के प्रति बहुत अनुराग था। ‘पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी’ वहां नहीं रह पाती, वे इस मानसिकता को बदलना चाहते थे। उनका मत था कि शिक्षा के प्रसार से इस स्थिति को सुधारा जा सकता है। इसलिए 1960 में उन्होंने अपने हिस्से में आयी पैतृक सम्पत्ति ‘विद्या भारती’ को दान कर दी। आज वहां पर एक बड़ा कृषि विद्यालय चलता है, जो उत्तरांचल का पहला कृषि विद्यालय है।

आगे चलकर जब उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा, तो वे फिर से तहसील प्रचारक का दायित्व लेकर मेरठ की बागपत तहसील में काम करने लगे। कुछ वर्ष बाद जब आयु की अधिकता के कारण स्वास्थ्य संबंधी अनेक समस्याओं ने उन्हें घेर लिया, तो उन्हें सरस्वती कुंज, निराला नगर, लखनऊ में बुला लिया गया। लम्बी बीमारी के बाद लखनऊ के चिकित्सा महाविद्यालय में दो सितम्बर, 1981 को उनका देहावसान हुआ। उनके गांव विजयपुर पाटिया में बना कृषि विद्यालय उनकी स्मृति को आज भी जीवंत बनाये है।
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2 सितम्बर/जन्म-दिवस
आदर्श कार्यकर्ता रामेश्वर दयाल जी

श्री रामेश्वर दयाल शर्मा का जन्म दो सितम्बर, 1927 को अपनी ननिहाल फिरोजाबाद (उ.प्र.) में हुआ था। इनके पिता पंडित नत्थीलाल शर्मा तथा माता श्रीमती चमेली देवी थीं। 1935 में इनके पिताजी का देहांत हो गया, अतः माताजी चारों बच्चों को लेकर अपने मायके फिरोजाबाद आ गयीं। इस कारण सब बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा फिरोजाबाद में ही हुई।

1942-43 में रामेश्वर जी स्वाधीनता सेनानी श्री रामचन्द्र पालीवाल तथा श्री रामगोपाल पालीवाल से प्रभावित होकर फिरोजाबाद के भारतीय भवन पुस्तकालय का संचालन करने लगे। इसी समय आगरा जिले में प्रचारक श्री भाऊ जी जुगाधे के छोटे भाई भैया जी जुगाधे के साथ वे शाखा में जाने लगे। फिरोजाबाद संघ कार्यालय पर श्री बाबासाहब आप्टे के दर्शन एवं वार्तालाप से उनके मन पर संघ के विचारों की अमिट छाप पड़ गयी।

1945 में वे फिरोजाबाद से आगरा आ गये और यमुना प्रभात शाखा में सक्रिय हो गये। इसी समय वे छत्ता वार्ड की कांग्रेस कमेटी के महामंत्री भी थे। 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लग गया। रामेश्वर जी प्रारम्भ में तो भूमिगत रहकर काम करते रहे, फिर संगठन का आदेश मिलने पर श्री भाऊ साहब जुगाधे के साथ सत्याग्रह कर दिया।

जेल से छूटने और प्रतिबन्ध समाप्ति के बाद वे फिर संघ कार्य में सक्रिय हो गये। परिवार के पालन के लिए वे आगरा में सेना की कार्यशाला में नौकरी करने लगे। 1954, 58 और 60 में उन्होंने संघ के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण पूरे किये। नौकरी, परिवार और संघ कार्य में उन्होंने सदा संतुलन बनाकर रखा। उनके तीन पुत्र और चार पुत्रियां थीं; पर उन्होंने सादगीपूर्ण जीवन बिताते हुए अपने खर्चे सदा नियन्त्रित रखे। 1960 से 66 तक वे भारतीय मजदूर संघ के प्रदेश सहमंत्री तथा प्रतिरक्षा मजदूर संघ के केन्द्रीय कोषाध्यक्ष भी रहे।

1967 में वे विश्व हिन्दू परिषद में सक्रिय हुए। साधु-संतों के प्रति श्रद्धा होने के कारण उन्हें उ0प्र0 में धर्माचार्य संपर्क का काम दिया गया। प्रतिदिन दफ्तर जाने से पहले और बाद में वे परिषद कार्यालय पर आते थे। 1987 में सरकारी सेवा से अवकाश प्राप्त कर वे वि.हि.प के दिल्ली स्थित केन्द्रीय कार्यालय में आ गये। यहां उन्हें केन्द्रीय सहमंत्री की जिम्मेदारी और विश्व हिन्दू महासंघ में नेपाल डेस्क का काम दिया गया। 1996 से वे श्री अशोक सिंहल के निजी सहायक के नाते उनके पत्राचार को संभालने लगे।

अध्यात्म के क्षेत्र में वे पूज्य स्वामी अड़गड़ानंद जी को अपना गुरु मानते थे। उनके प्रवचनों की छोटी-छोटी पुस्तकें बनाकर वे निःशुल्क वितरण करते रहते थे। वर्ष 2009 में उनकी मूत्र ग्रन्थी में कैंसर का पता लगा। शल्य क्रिया से कैंसरग्रस्त भाग हटाने पर कुछ सुधार तो दिखाई दिया; पर रोग समाप्त नहीं हुआ। अतः कमजोरी लगातार बढ़ती रही। यह देखकर वे अपने हिस्से के काम दूसरों को सौंपकर अपने बच्चों के पास आगरा चले गये।

आगरा में उपचार तथा देखभाल के साथ कैंसर भी अपना काम करता रहा और धीरे-धीरे वह पूरे शरीर में फैल गया। 10 जून, 2010 को संत बच्चा बाबा ने घर आकर उनके गुरु पूज्य स्वामी अड़गड़ानंद जी का संदेश सुनाया कि अब तुम यह शरीर छोड़ दो। नये शरीर में आकर प्रभु भजन करना। यह संदेश सुनने के कुछ घंटे बाद ही रामेश्वर जी ने संसार छोड़ दिया।

रामेश्वर जी के छोटे भाई राजेश्वर जी संघ के जीवनव्रती प्रचारक थे। वे पहले संघ और फिर भारतीय मजदूर संघ में सक्रिय रहे। उनका देहांत भी आगरा के संघ कार्यालय, माधव भवन में 10 जून, 2007 को ही हुआ था।

…..इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल।

मो 9897230196

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