लम्पी रोग से गायों और दुग्ध उत्पादों पर आए संकट

लम्पी रोग की प्रभावी रोकथाम के दावे सरकार भले ही कर रही हो, लेकिन इस रोग को लेकर जनता में फैली भ्रांतियों के कारण ऐसा भय उत्पन्न हो गया है। जिसकी मार अंतत: पशुपालकों पर ही पड़ रही है। खास तौर पर वे जो गोवंश के दूध के कारोबार से जुड़े हैं।

कोरोना जैसा कहर लम्पी रोग में भी नजर आ रहा है, जिसने गोवंश को खतरे में डाल दिया है। पिछले दिनों खास तौर से ग्रामीण क्षेत्रों में इस रोग की चपेट में आकर एक के बाद एक गायों के काल के ग्रास में समाने की खबरें आईं। चिंता की बात यह भी है कि गोवंश को इस संकट से बचाने के लिए अभी तक वैक्सीन परीक्षण के दौर में ही है।

बड़ा संकट लम्पी रोग से ग्रसित गायों के दूध में संक्रमण से जुड़ी भ्रांति का है। सरकार के स्तर पर कोई भी सक्षम अधिकारी या जनप्रतिनिधि भी इस मसले पर चुप्पी साधे हुए है। पिछले माह के अंत में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की ओर से बुलाई गई वर्चुअल बैठक में पशुपालन मंत्री लालचंद कटारिया ने जानकारी दी थी कि प्रदेश में आठ लाख से ज्यादा गोवंश संक्रमित हुए हैं। यह संख्या राजस्थान प्रदेश की ही है। मारवाड़ तो लम्पी प्रकोप से सबसे ज्यादा प्रभावित है। देश के सोलह से अधिक राज्य में गोवंश लम्पी की चपेट में आ गया।

दूध के आँकड़े देखें तो अकेले जोधपुर में ही जून महीने में डेयरी प्रतिदिन 90 हजार लीटर दूध की खरीद कर रही थी, जो अब घट कर 45 हजार लीटर प्रतिदिन पर आ गया है। दूध को लेकर यह संकट चलता रहा तो निश्चय ही छाछ, लस्सी, दही, पनीर और मिठाइयां ही नहीं घी की भी बाजार में उपलब्धता पर असर पड़ना तय है। जनता में भ्रम की स्थिति और दूध उत्पादों की घटती संख्या, दोनों ही ठीक नहीं हैं।

मृत पशुओं के निस्तारण का भी बड़ा संकट है, क्योंकि लगातार खबरें आ रही हैं कि गांवों में मृत पशुओं को उठाने तक की समस्या जटिल हो गई है। गौशालाओं को संक्रमण रहित करना बहुत जरूरी है।

गोवंश में फैली इस बीमारी से निपटने के लिए राजनीतिक दलों को भी आपसी मतभेद से ऊपर उठकर काम करना होगा। राज्य सरकार, जनप्रतिनिधियों, पशुपालकों, गौशाला संचालकों और जनता के सहयोग से ही इस संक्रमण का मजबूती से मुकाबला किया जा सकता है।

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