मित्रता : अटल व अडवाणी से  नरेंद्र मोदी और अमित शाह तक।

 अटल व अडवाणी
से
 नरेंद्र मोदी और अमित शाह तक।
दो ऐसे मित्र, जिनकी मित्रता महाभारत के कृष्ण-अर्जुन की तरह है। सत्ता के शीर्ष शिखर तक की यात्रा इन दो मित्रों (जोडी) ने “परम सखा भाव” से की वो भी एक-दूसरे का पूरक बनकर। एक योद्धा बना, राजसत्ता का तो दूसरा समर्पित सारथी की भूमिका निभाता रहा निस्वार्थ भाव से।
कोई आपसी प्रतिस्पर्धा नहीं, वो भी आज के युग में।
एक प्रोफेशनल के अनुभव से जब सोचता हूँ, प्राइवेट कम्पनी का आफिस हो या सरकारी दफ्तर, मीडिया हाउस हो या ब्यूरोक्रेसी, डॉक्टर हो या वकील, बड़े उद्योगपति हों या परचूनी, कोई किसी का सगा नहीं। सब एक-दूसरे का गला काटने को तैयार। यादव दंभ भरने वाले नेताजी हों या  सामाजिक न्याय की स्वघोषित पुरोधा मायावती, या फिर गरीबों के कथित मसीहा लालू यादव, कहाँ घर और रिश्ते से बाहर उन्होंने किसी को स्थापित किया ??
आज जब संशय से घिरे “राजनीतिक कुनबे” परिवार के सदस्यों के साथ छल, कपट कर रहे हैं और दगा दे रहे हैं वहां पहले अटल-आडवाणी जिन्हे मजबूर सरकार चलानी पडी थी। और अब उनसे भी 4 कदम आगे अपने परिश्रम व पुरुषार्थ के बल पर भारतीय संस्कृति का परचम लहराने वाले, मजबूत सरकार देने वाले मोदी-शाह की मित्रता वाकई कलयुग में किसी अचंभे से कम नही है।
ऐसे ही कोई शिखर तक नहीं पहुंचता। कोई तो बात होती है। कुछ तो “जीवन मूल्य” होते है, बहुत बडे त्याग, तपस्या, संस्कार की आवश्यकता होती है। जिन्हें संग़ठन ही सींच कर निरंतर मजबूत बनाने में सहायक होता है। अगर किसी को संगठनात्मक संरचना के विकास की गति समझ में आ जाये तो समझो उसके उत्थान को कोई नही रोक सकता। यही गुण इन दोनों में कूट – कूट भरा है, जो इन्हें शिखर तक ले गया।
जब श्री नरेंद्र मोदी के नाम की घोषणा की श्री अमित शाह ने, तो चेहरे की आभा और हंसी जोर जोर से कह रही थी, मित्र ! मैंने मित्र धर्म का निर्वहन किया। तू मैं हूं, और मैं ही तू है।
सत्ता की राजनीति में यह “नूतन संस्कृति” का आगाज है जिसकी जड़े संघ के संस्कारो से आती है। यही सनातम जीवन मूल्य बोध है।
वर्तमान  परिस्थितियां बता रही है,!!
ये कोई चांदी के चम्मच मुह में लेकर नहीं पैदा हुए थे, आज के सम्राट ।
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