वाणी का महत्व – श्रृंगीऋषि जी के प्रवचनों से साभार संकलन

1 ०१-०५-१९८०- वाणी का महत्व
जीते रहो! देखो, मुनिवरों! आज हम तुम्हारे समक्ष, पूर्व की भांति, कुछ मनोहर वेद-मन्त्रों का गुणगान गाते चले जा रहे थे, ये भी तुम्हें प्रतीत हो गया होगा, आज हमने पूर्व से, जिन वेद-मन्त्रों का पठन-पाठन किया। हमारे यहाँ, परम्परागतों से ही, उस मनोहर वेदवाणी का प्रसारण होता रहता है जिस पवित्रवेदवाणी में उस मेरे देव को विज्ञानमयी स्वरूप माना गया है, जो सर्वत्रब्रह्माण्ड का नियन्ता है अथवा निर्माण करने वाला हैं क्योंकि प्रत्येक वेदमन्त्रउस परमपिता परमात्मा की गाथा गा रहा है, उसके गुणों का गुण-वादन कर रहा है। किसी भी मन्त्रके ऊपर जब विचार-विनिमय होने लगता है तो उसमें मेरे देव की अनुपमता निहित रहती है। जिस प्रकार माता का पुत्रमाता की गाथा गा रहा है। उसी प्रकार प्रत्येक वेदमन्त्रउस ब्रह्म का वर्णन कर रहा है। वह उसकी आभा का वर्णन कर रहा है। आज का हमारा वेदमन्त्रक्या कह रहा है। वह मेरा देव विज्ञानमय स्वरूप माना गया है जिनका विज्ञान आयतन माना गया है।
आज का वेदमन्त्रकुछ विज्ञान की चर्चा कर रहा है, कुछ विज्ञान की वार्ताएं प्रकट कर रहा है। विज्ञान की उत्पत्ति का वर्णन कर रहा है प्रत्येक मानव को एक आकांक्षा लगी रहती है कि हम ज्ञान और विज्ञान में रमण करना चाहते हैं। प्रत्येक मानव यह चाहता है कि मैं वैज्ञानिक बनूं। प्रत्येक मानव चाहता है कि मैं सर्वत्रान और विज्ञान को सीमित करके अपने अन्तर्हृदय में स्थिर कर लूं। यह मानव के जीवन में कल्पना लगी ही रहती है। परन्तु जब वह वेद के समीप जाता है, क्योंकि वेद नाम ज्ञान को माना गया है। जितना भी ज्ञान है उस ज्ञान का सम्बन्ध मानव की अन्तरात्मा से होता है। तो जितना भी ज्ञान है जो हृदय-ग्राही है वह सर्वत्रब्रह्माण्ड में ओत-प्रोत है। चाहे वह पृथ्वी मण्डल का प्राणी हो, चाहे वह मंगल का प्राणी क्यों न हो, किसी भी लोक-लोकान्तरों में तुम प्रवेश करोगे तो वहाँ ज्ञान और विज्ञान तुम्हें दृष्टिपात आएगा।
ब्रह्मचारी सुकेता की अन्तरिक्ष यात्रा
मुझे वह काल स्मरण है जब ब्रह्मचारी सुकेता अपने यान में विद्यमान हो करके अन्तरिक्ष यात्रा करने चले। यहाँ से जब उन्होंने उड़ान उड़ी तो वह सबसे प्रथम चन्द्रमा में पहुंचे। चन्द्रमा से उड़ान उड़ करके बृहस्पति में पहुंचे। जब बृहस्पति से अपनी उड़ान उड़ी तो बुद्ध में जा पहुंचे। बुद्ध से उड़ान उड़ी तो वह मंगल में जा पहुंचे, मंगल से उड़ान उड़ी तो शुक्र में जा पहुंचे। शुक्र से उड़ान उड़ी तो वह श्वेतकेतु मण्डल में जा पहुंचे। परन्तु इन लोकों की उड़ान उड़ने के पश्चात् वह बहत्तर मण्डलों का भ्रमण करके अपने यान के सहित महर्षि भारद्वाज के द्वार पर जा पहुंचे। तब भारद्वाज मुनि ने कहा कहो ब्रह्मचारी सुकेता गार्गे! तुमने क्या दृष्टिपात किया। तो विचार चल रहा था मन्त्रयह कह रहा था विज्ञानाम् तत्काम देवः प्रवेहः ग्रहणा स्वस्तम् व्रही विस्वस्तम् व्यापकम् देवः वेद का मन्त्रदोनों आचार्यों के मध्य में यह कह रहा था कि यह ज्ञान व्यापक है यह ज्ञान और विज्ञान सर्वत्रब्रह्माण्ड का एक मूलक है। तो ब्रह्मचारी सुकेता ने यह कहा कि महाराज! मैं जिस भी मण्डल में पहुंचा हूँ उसी मण्डल में विज्ञान एक व्यापकवाद में रमण कर रहा है। वह किसी की सम्पदा नहीं रहती, क्योंकि ज्ञान ईश्वरीय है उसका अन्तरात्मा से समन्वय रहता है। चेतना और जड़ जगत् दोनों की विवेचना कर रहा है परन्तु किसी भी काल में उसका हृास नहीं होता।
तो मेरे प्यारे! विचार क्या? प्रत्येक वेदमन्त्रहमें यह निर्णय कराता है कि उस परमपिता परमात्मा का यह ज्ञान और विज्ञान है वह अनन्त है, उसकी कोई सीमा नहीं, कोई भी मानव सृष्टि के प्रारम्भ से वर्तमान के काल तक ऐसा वैज्ञानिक नहीं हुआ, कोई ऐसा ज्ञानी नहीं हुआ जो परमपिता परमात्मा के ज्ञान और विज्ञान को सीमाबद्ध करने वाला हो क्योंकि उसका समन्वय व्यापक है, विभु के रूप में रमण करने वाला है। तो आओ मेरे प्यारे! मैं कुछ वार्त्ता प्रकट कर रहा था। आज मैं तुम्हें उन्हीं शब्दों पर ले जाने के लिए आया हूँ जो हमारा पक्ष चल रहा था। आज हम आध्यात्मिकवादी बनना चाहते हैं और भौतिक विज्ञानवेत्ता भी बनना चाहते हैं। संसार में कोई प्राणी ऐसा नहीं है जिसकी अपनी कोई उड़ान न हो। क्योंकि मनस्तत्व तो कार्य करता ही रहता है। ज्यों-ज्यों प्राण के संसर्ग में आता है त्यों-त्यों वह ज्ञान के क्षेत्रमें चला जाता है और जब यह मन प्राण से विभक्त हो जाता है इसमें अज्ञान छा जाता है। इसीलिए हमारे यहाँ ऋषि-मुनियों ने अनुसन्धान किया और कुछ दृष्टिपात भी आता है।
प्राण
हमारे मानव शरीर में दस प्राण कहलाते हैं, प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान, यह प्राण हैं और पाँच उप-प्राण कहलाते हैं-नाग, देवदत्त, धनंजय, कृकल, कूर्म। जैसे यह मानव शरीर में कार्य कर रहे हैं वैसे ही दस प्राण इस ब्रह्माण्ड में गति कर रहे हैं, इसी प्रकार यह ब्रह्माण्ड में कार्य कर रहे हैं, विभक्त, क्रिया चल रही है। क्योंकि प्राण दस रूपों में ही अपनी आभा को प्रकट कर सकता है। दस प्राणों से ही गणना की उत्पत्ति होती है। जितनी भी गणना है अर्थात् दस से आगे कोई विभक्त क्रिया नहीं होती। तो इसी के रूप में हम इकाई की आभा में रहते हैं और इन्हीं दसों प्राणों के आधार पर कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष बनता है। एक माह में दो पक्ष होते हैं। इसी प्रकार इन दस प्राणों के आधार पर सम्वत्सर बनता है और इसी प्राणों के आधार पर सम्वतसर के होते हुए अहोरात्रबनता है। अहोरात्र के बन जाने से मनु बनता है और मनु के बनने से सृष्टि का क्रम मानव के समीप आ जाता है। तो मेरे पुत्रो! इस विषय पर अपनी विशेष विवेचना नहीं करना चाहता। केवल तुम्हें परिचय देने चला आता हूँ क्योंकि परिचय देना ही हमारा कर्त्तव्य है। देखो, पुत्रो! इन्हीं इस प्राणों में जितना भी परमाणुवाद है वह गति कर रहा है।
मेरे प्यारे! देखो, त्रिकोण में यह विज्ञान गति कर रहा है। हमारे आचार्यों ने विज्ञान का कोई मूल नहीं माना है। विज्ञान के ऊपर अध्ययन किया हैं, बहुत अध्ययन किया और अध्ययन करके, उसको समेट करके अपने अन्तर्हृदय में स्थिर कर लिया। क्योंकि विज्ञान का बाह्य रूप बन जाने से अज्ञानता बलवती हो जाती है क्योंकि मानव के जीवन का जितना विस्तार बनता चला जाएगा उतना ही वह प्रकृतिवाद में, जड़ता के आंगन में रमण कर जाएगा और जितना ही यह अपने विचारों को संकुचित बना देता है, आंकुचन क्रिया में लाता है, संसार को समेट करके अपने अन्तर्हृदय में स्थिर कर लेता है उतना ही उसे आत्मज्ञान की उपलब्धि होने लगती है। मानव जितना वाणी से मौन रहता है, जितना वाणी से अन्तर्मुखी चिन्तन करता है उतना ही उसके अन्तर्हृदय में प्रकाश होता है और जितना वह इस वाणी के द्वारा बाह्य जगत में प्रवेश करता है बाह्य जगत् में अपनी कामना को बलवती बना लेता है उतना ही इस वाणी का विस्तार बन जाता है और वाणी में रजोगुण, तमोगुण छा जाता है और सतोगुण भी छा जाता है। परन्तु देखो, जितना भी सतोगुण है वह सर्वत्रमित्रशक्ति कहलाती है और जितना भी कटु शब्द है वह वरुण शक्ति कहलाती है। तो मित्रशक्ति और वरुण शक्ति का मिलान होने से अमृत की उत्पत्ति होती है। अमृत की उत्पत्ति कैसे होती है? वरुण शक्ति और मित्रशक्ति दोनों का मिलान, दोनों का समन्वय हो करके जितनी भी वनस्पतियाँ हैं अथवा जितना भी जल है, अग्नि में आभा है, अमृत है यह दोनों के समन्वय से है। तो आज मैं बेटा! क्या उच्चारण कर रहा हूँ तुम्हारे समीप कि मित्रशक्ति प्राण हैं और वरुण शक्ति मनस्तत्व माना गया है। मैं इस सम्बन्ध में कोई विशेषता अथवा विवेचना नहीं देने आया हूँ।

 

श्रृंगीऋषि जी के प्रवचनों से साभार संकलन

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