उत्पीड़न का प्रपंच :
जो लोग मनुस्मृति के हवाले से जाति के नाम पर राजनैतिक खेल खेल रहे हैं उनको नश्लवादी अंग्रेज ईसाइयों की सच्चाई समझनी चाहिए।
1807 में दक्षिण भारत का सर्वे करने के बाद उसने हिन्दू समाज को 122 कास्ट/ ट्रेड में वर्णित किया। जाति का अर्थ था मैन्युफैक्चरिंग या ट्रेडिंग कम्युनिटी।
जीवंत शिल्प और वाणिज्य के समय भारत मे जाति एक शक्तिशाली सामाजिक ढांचा था, जिसमे हर जाति या समुदाय के स्वयं के विधान थे, और उनके पालन करवाने हेतु उनके स्वयं का समर्थवान सिस्टम था जिसको आज आप खाप_पंचायत का एक विकसित स्वरूप समझ सकते हैं। वे किसी धार्मिक या राजनैतिक संस्था से अनुशासित न होकर स्वयं शासित समुदाय थे। इस बात को फ्रांसिस हैमिलटन बुचनान भी लिखता है अपनी पुस्तक में। बुचनान की पुस्तक तीन वॉल्यूम में है लगभग 1450 पेज में।
उसने किसी भी अछूत जाति या ऐसी किसी प्रथा के बारे में लिखा नही है।
क्यों ?
क्या वह अंधा था?
नही अभी ईसाइयो का पूरा ध्यान भारत के धन और वैभव को लूटना था, यहां के साइंस और टेक्नोलॉजी के मॉडल को चुराकर अपने देश मे मैन्युफैक्चरिंग शुरू करना था जिसको वे औद्योगिक क्रांति का नाम देंगे।
वही भारत के मैन्युफैक्चरिंग और ट्रेड को नष्ट करेंगे।
फिर अपने अपराधों पर पर्दा डालने तथा राजनैतिक और धर्म परिवर्तन का आधार गढ़ने हेतु फेक न्यूज़ की रचना करेंगे।
जाति के उस स्वरूप के जिंदा रहते उसमे ईसाइयत का प्रवेश संभव नही था। इसीलिये मैक्समुलर लिखता है -” जाति धर्म परिवर्तन में सबसे बड़ी बाधा है, लेकिन सम्भव है कि कभी यह पूरे समुदाय के धर्म परिवर्तन हेतु एक शक्तिशाली इंजन का काम करे”।
इसलिए उन्होंने कास्ट को टारगेट करके कास्ट को एक अमानवीय प्रथा घोषित करना शुरू किया।
पहले उन्होंने शिल्पकार और वाणिज्यिक समुदायों को आर्थिक रूप से विनष्ट किया फिर आने वाले समयकाल में अनेको कारणों से चार वर्ण वाले हिन्दू समाज को 2000 से अधिक जातियों में वैधानिक रूप से चिन्हित किया।
मेरी पुस्तक में आपको यह देखने को मिलेगा कि किस तरह ईसाई मिशनरी एम ए शेररिंग ( 1872) ने कास्ट के लिए उन्होंने ब्राह्मणों को गन्दी गन्दी गालियां दी है। वह काम आज भी जारी है। लेकिन पूरी स्किप्ट उसी की लिखी हुई है। भाषा बदल सकती है लेकिन स्क्रिप्ट वही है।
1901 के जनगणना कमिश्नर रिसले और मैक्समुलर में अच्छी सांठ गांठ थी।
1901 में रिसले ने मैक्समुलर के आर्यन_अफवाह से निर्मित तथाकथित सवर्णो को ऊंची जाति घोषित किया बाकी अन्य समुदायों को नीची जाति।
2378 जातियां।
एक आधुनिक लेखक निकोलस बी डर्क लिखता है:
“ रिसले के द्वारा तैयार किए गए सिस्टम की बुद्धिमत्ता का सबसे बड़ा प्रमाण इस बात से सिद्ध होता है कि इसके कारण बहुत लोगों ने बहुत सारे मुकदमों और प्रतिनिधित्व (memorials) अंग्रेजी सरकार के पास भेजे । इसके पूर्व भी जनगणना अधिकारियों के पास शिकायते दर्ज हुयी थे , लेकिन रिसले द्वारा ये घोषणा होने के बाद कि जनगणना को सामाजिक तरजीह का आधार माना जाएगा ; जनगणना को एक ऐसा अभूतपूर्व राजनैतिक हथियार बना दिया”।
(निकोलस बी दर्क्स ; कास्ट ऑफ minds पेज- 221 )
“1911 के जनगणना कमिश्नर ने अपनी रिपोर्ट इस शिकायत के साथ शुरुवात की –‘ जनगणना की किसी भी अन्य मुद्दे ने इतनी उत्तेजना पैदा नहीं किया है जितना कि कास्ट की वापसी ने। बंगाल के लोगों को ऐसा लगता है कि जातिगत जनगणना उस कास्ट के लोगों की संख्या जानने के लिए नहीं बल्कि उनको उनकी सामाजिक हैसियत बताने के लिए की जा रही है ….लोगों की इस भावना का कारण पिछली जनगणना रिपोर्ट मे लोगों की सामाजिक हैसियत तय किए जाने के कारण है’।
कमिश्नर ने बताया कि विभिन्न कास्ट संस्थाओं से सैकड़ो मुकदमे दाखिल किए गए हैं, कि उनका वजन ही यदि तौला जाय तो डेढ़ मोन्द (120 पाउंड ) निकलेगा, जिनकी मांग है कि उनका नामकरण बदला जाय और सामाजिक तरजीह मे उनको ऊपर रखा जाय, और उनको तीन द्विज वर्ण मे रखा जाय । शेखर उपद्ध्याय ने नोट किया –‘ लोकल स्तर पर इन नीची (घोषित) जातियाँ का आंदोलन कभी कभी ऊंची जातियों के खिलाफ दुश्मनी पैदा कर रहा है, और कभी कभी नीची जातियों के हरकतों से ऊंची जतियों मे गुस्सा और विरोध देखने को मिल रहा है ?”
(निकोलस बी दर्क्स ; कास्ट ऑफ minds पेज- 223 )
1921 और 1931 मे भी जातिगत जनगणना होते है लेकिन 1941 मे जातिगत जनगणना बंद कर दी जाते है उसका कारण बताया गया कि दूसरे विश्व युद्ध के कारण जनगणना अधिकारियों की कमी आ गयी थी।
लेकिन शेखर उपाध्याय का नोट इस बात को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है कि भारत मे 1857 के बाद हिंदुओं द्वारा उठ रहे विरोध के खिलाफ उनको बांटने की कूटनीति मे अंग्रेज़ सफल हो गए । हिंदुओं को एक दूसरे के सम्मुख खडा करके वे अपने विरोध खड़े हो रहे जन आंदोलन को खत्म करने की कूटनीतिक काट तैयार करने मे सफल हो रहे थे । अब उनको अपना एक नायक चुनना था जो मैकाले की शिक्षा नीति से निकला हुआ शक्ल से भारतीय परंतु अक्ल से अंग्रेज़ हो या उनकी शाजिश को भारत के लोगों की आकांक्षा के रूप प्रस्तुत करने को उद्धत हो। और आने वाले दिनों मे वे उसे खोज भी लेंगे।
पहला काम लेकिन ये होगा कि 1906 मे मुस्लिम लीग के नाम पर एक सहयोगी पार्टी तुरंत खोज लिया जाय ।
ब्रिटिश दस्युयों के विरुद्ध 1857 में मुसलमान और हिन्दू एक साथ लड़े थे।
50 वर्षो में वे हिन्दू और मुसलमानों को आमने सामने खड़ा करने में सफल रहे। नीति यही थी कि एक समुदाय को सरकारी संरक्षण देकर दूसरे समुदाय को चिढाना और प्रताड़ित करना।
अगले 20 – 25 वर्षो में हिंदुओं को बांटने की योजना बनाएंगे और जनगणना को हथियार की तरह प्रयुक्त करते हुए विकृत इतिहास की मदद से हिंदुओं को बांटेंगे और उनके नायक चुनेंगे जिनको सरकारी प्रश्रय देकर स्थापित नायक बनाया जाएगा।
इनके ऐतिहासिक नायक भी चुने जाएंगे एकलव्य और शम्बूक के नाम से। और वर्तमान नायक भी।
वे शक्ल से भारतीय और अक्ल से अंग्रेज होंगे।
“एलियंस एंड स्टूपिड प्रोटागोनिस्ट” – मैकाले के शब्दों में।
साधो यह मुर्दों का देश।
एकलव्य_और_शम्बूक का भारतीय इतिहास में औचित्य:
क्यों इन हजारों वर्ष पूर्व के चरित्रों को पिछले 100 वर्षों में हिन्दुओ के एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के उत्पीड़न के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया?
किसने किया और क्यों किया ?
मैंने एक पोस्ट लिखी थी कि त्रेता और द्वापर के इन चरित्रों का ब्रिटिश दस्युवों ने, हिंदुओं का हिंदुओं के द्वारा ही उत्पीड़न के एक प्रतीक के रूप में उपयोग क्यों किया?
प्रायः होता यह है कि आप इन चरित्रों की प्रामाणिकता को सत्य सिद्ध करने के लिए अनेक स्थापनाएं देने लगते हैं। यथा एकलव्य जरासंध के सेनापति का पुत्र था और जरासंध कृष्ण के दुश्मन थे। ऐसी स्थिति में आप वही भूल करने लगते हैं जो डॉ आंबेडकर ने किया था। ब्रिटिश दस्युवो के अफवाह को खण्डित करने के लिए आप संस्कृत ग्रंथो को पढ़ने लगते हैं यह निरी मूर्खता के अतिरिक्त कुछ भी नही है।
– रोमेश दत्त की पुस्तक Economic History of British India जो 1902 में प्रकाशित हुई है। इसके समस्त डेटा 1800 और 1814 के बीच भारत का, ईस्ट इंडिया कंपनी के फ्रांसिस हैमिलटन बुचनान द्वारा किये गए एकोनिमिक सर्वे से उद्धरित हैं।
1800 से 1807 के बीच बुचनान दक्षिण भारत का सर्वे करता है, और उसके बाद उत्तर भारत का सर्वे करता है। उसके सर्वेक्षण को 1500 पेज की तीन वॉल्यूम की पुस्तक के रूप में प्रकाशित। यह पुस्तक मेरे पास है, इसमें अछूत शब्द पूरी तरह विलुप्त है? क्यों ? अंधा था वह क्या?
अंधा नही था वह। अछूत थे ही नहीं।
उत्तर भारत का सर्वे करने का खर्च आया है 30,000 पौंड, यह रोमेश दत्त लिख रहे हैं।
कृषि शिल्प और वाणिज्य पर आधारित भारत की जीडीपी 0 AD से 1750 तक पूरी दुनिया की जीडीपी का 24% था जबकि ब्रिटेन और अमेरिका की जीडीपी उस समय मात्र 2% थी। यह बात अब आप समझ सकते हैं।
विल दुरंत लिखता है कि ऐसा कोई भी बहुमूल्य उत्पाद जिससे विश्व परिचित था वह सबके सब भारत मे तब तक निर्मित होते आये थे, जब समुद्री डाकुओं ने भारत की भूमि पर पैर रखा था।
अब रोमेश दत्त मात्र एक शिल्प का बिहार के एक जिले पटना का व्योरा लिख रहे हैं 1800 के आस पास का, जब भारत विश्व की लगभग 20% जीडीपी का उत्पादक बचा था।
” स्पिनिंग और बुनकरी भारत का राष्ट्रीय उद्योग है। इस जिले में बुचनान के अनुसार 330,426 स्पिनर थे, जो सबकी सब महिलाएं थी। और वह भी दोपहर के बाद कुछ घण्टों के लिए ही स्पिनिंग करती थीं। कुल 2,367,277 रुपये के धागे काते जाते थे, जिनमे यदि कच्चा माल का मूल्य 1,286,272 रुपये घटा दिया जाय तो 1,081,005 रुपये का कुल लाभ होता था जिसमे प्रति महिला को 3.25 रुपये वार्षिक आय होती थी। चूंकि अच्छे गुणवत्ता के सामानों की मांग पिछले कुछ वर्षों में घटी है इसलिए महिलाएं काफी मुश्किलों से गुजर रही हैं।
बुनकरों की संख्या बहुत अधिक है। लूम्स की कुल संख्या 750 है जिनसे 540,000 मूल्य का वार्षिक उत्पाद निर्मित किया जाता है। यदि उसमे सूत का मूल्य घटा दिया जाय तो कुल लाभ 81,400 रूपये का होता है- प्रति लूम 108 रुपये जो तीन बुनकरों द्वारा चलाया जाता है। प्रति व्यक्ति 36 सालाना। देशी उपयोग के लिए निर्मित करने वाले बुनकरों की आय 28 रुपये है।”
( रेफ – Economic History of British India – Ramesh dutt vol i p. 233 – 234)
पटना में कितने गाँव होंगे?
जोड़ लीजिये।
लगभग प्रति गांव में एक लूम।
इसको पूरे भारत का एक पायलट प्रोजेक्ट समझकर अध्ययन कीजिये। क्योंकि कमोवेश हर जिले का ऐसा ही मॉडल था। और यह सिर्फ वस्त्र उद्योग का मॉडल है। ऐसे सैकङो अन्य उद्योग भी थे, जिनका वर्णन इस पोस्ट में संभव नही है।
आने वाले 100 वर्षो में भारत कृषि शिल्प वाणिज्य को पूरी तरह नष्ट किया जाएगा। उषा पटनायक के अनुसार कुल 45 ट्रिलियन पौंड लूटकर ले जाया जाएगा। करोड़ो लोग बेरोजगार होंगे जिनमे से चार से पांच करोड़ भारतीय भुखमरी और संक्रामक रोगों से मौत के मुंह मे समायेंगे। इएलिये नहीं कि अन्न की कमी होगी। वरन इसलिए कि इनके जेब मे अन्न खरीदकर अपना पेट पालने का पैसा नही होगा।
इन घटनाओं को भारत के इतिहास और समाजशास्त्र से पूरी तरह गायब कर दिया जाएगा।
क्यों ?
सोचिये वे ऐसा क्यों करेंगे?
कोई अपने अपराधों को स्वीकार करता है?
चिदम्बरम जैसे काले अंग्रेज तक 21 बार जमानत ले लेते हैं तो वह तो गोरे अंग्रेज थे। इनके माई बाप।
विलियम जोंस और मैक्समुलर के फेकन्यूज़_फैक्ट्री से निकले अफवाह साहित्य को विश्व साहित्य का हिस्सा बनाया जाएगा। यह अफवाह गढ़ी जाएगी कि आर्यन ( सवर्ण) बाहर से आये और भारत के शूद्र/ अतिशूद्र/ द्रविड़ो को गुलाम बनाया। उनकी स्त्रियों को गुलाम और वेश्या बनाकर उनसे बच्चे पैदा किये जिससे हिंदूइस्म का सबसे घृणित व्यवस्था कास्ट_सिस्टम का जन्म हुआ।
यह कथा आप जानते हैं।
भारत के शिल्पियों और कृषकों के इस दुर्दशा भूंखमरी और मौत के लिए हिंदूइस्म और ब्रम्हानिस्म को गाली दिया जाएगा।
आर्यन अफवाह को गजेटियर ऑफ इंडिया में 1882 में दर्ज करके वैधानिक बनाया गया और सत्य की तरह प्रसारित किया गया।
अब एक तीर से कई शिकार किये जाएंगे – अपने अपराधों पर पर्दा डाला जाएगा, फेक न्यूज़ के माध्यम से, हिन्दुओ को बांटा जाएगा, उनको खण्डित करने के लिए झूंठे साहित्य का गठन किया जाएगा, जिससे ईसाइयत में धर्म परिवर्तन का आधार बनाया जा सके। यह स्थापित किया जाएगा कि इनको हजारों साल से प्रताड़ित किया जा रहा है। ऐसे में एकलव्य और शम्बूक जैसे प्रतीकों की आवश्यकता पड़ेगी इस झूंठ को सत्य की तरह स्थापित करने के लिए।
यह काम जनगणना के माध्यम से किया जाएगा।
1901 में जनगणना कमिश्नर H H रिसले ने कल्पित आर्यन अर्थात सवर्णो को तीन ऊंची कास्ट घोसित किया और बाकी हिन्दू समुदायों को निम्न कास्ट घोषित करके भारतीय वर्ण व्यवस्था को वैधानिक रूप से नष्ट किया इस तरह फारवर्ड कास्ट और बैकवर्ड कास्ट की नींव रखी गयी।
1911 की जनगणना में यह स्थापित किया गया कि पहाड़ो और वनों में निवास करने वाले हिन्दू, हिन्दू नही है वे #animist हैं। अब इसका जो भी अर्थ होता हो।
इनके नायक के रूप में वनवासी #एकलव्य के प्रतीक को स्थापित किया गया जिसको गुरु द्रोण ने शिक्षा न देने के बाद भी अंगूठा दान में मांग लिया। इनको 1936 गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के तहत scheduled Tribe घोषित किया जाएगा।
1917 में इन्ही बेरोजगार और मौत के मुंह मे धकेले गए हिन्दुओ के लिए, शिक्षा के नाम पर उन्हें हिन्दुओ से अलग चिन्हित करने के लिए एक शब्द गढ़ा गया – डिप्रेस्ड क्लास।
1921 में डिप्रेस्ड क्लास को जनगणना का अंग बनाकर उसे वैधानिक बनाया गया।
1931 में इनको एक्सटीरियर कास्ट का भी नाम दिया गया।
1928 में साइमन से मिलने के बाद डॉ आंबेडकर ने अंग्रेजों ने को एक एफीडेविट देते है जिसको लोथियन समिति के नाम से जाना जाता है। उन्होंने लिखकर दिया कि डिप्रेस्ड क्लास ही अछूत हैं। और अछूतपन हिन्दू धर्म एक अविभाज्य अंग है। उनसे बड़ा हिन्दू धर्म का ज्ञाता उस समय कौन था।
1932 में मुसलमानों की तरह ही इन्ही वैधानिक घोषित अछूतों को हिन्दू की मुख्य शाखा से अलग करने हेतु seperate एलेक्टरेट दिया गया। उसके बाद 1936 में इन्हें भी गोवर्नमेंट एक्ट ऑफ इंडिया के तहत इनको scheduled Caste की उपाधि दी गयी। अब इस शब्द का जो भी अर्थ होता हो। इनके उत्पीड़न के प्रतीक के रूप में त्रेता युग के शम्बूक नामक चरित्र को स्थापित किया गया।
बाकी की कथा से आप लोग परिचित ही हैं।
इसके प्रमाण के रूप में आप चेक कीजिये कि पिछले 72 वर्षो में ईसाइयत में सर्वाधिक धर्मांतरण किस हिन्दू समुदाय करने में वे सफल रहे – द्रविड़ स्कीडुलेड ट्राइब और शेड्यूल्ड कास्ट, इन्ही का सर्वाधिक धर्मांतरण किया गया है।
N. B. जिसने भी मंडल_कमीशन की रिपोर्ट ध्यान से पढ़ी होगी उसको पता होगा कि 1989 में ओबीसी के आरक्षण सुझाव देते समय बी पी मंडल ने उनके सामाजिक पिछले पन का आधार निर्धारित करते हुए इन दो ऐतिहासिक चरित्रों को एक प्रतीक उद्धरण की तरह प्रस्तुत किया है।
क्या आप समझ सकते हैं कि हमारे नीति नियामक किस स्तर के “एलियंस और स्टुपिड प्रोटागोनिस्ट” हैं ?
इस विषय को क्या राष्ट्रव्यापी बहस का मुद्दा नहीं बनाया जा सकता?
बनाया जा सकता है।
बशर्ते कि आपके अंदर इन अफवाह आधारित साहित्य के खण्डन करने की क्षमता हो तो।
©डॉ त्रिभुवन सिंह
ॐ