अर्थव्यवस्था का दृष्टिकोण
एक व्यापारी से मेरी बात हो रही थी। वह कह रहा था कि धंधा मन्दा है , लगता है मकान बेचना पड़ेगा । मैने बोला अरे कोई बात नहीं मकान फिर खरीद लेना । बोला वह बात नहीं है , मकान तो मेरे पास चार हैं लेकिन रेट सही नहीं मिल रहे हैं । *उसे व्यापार में आए कुल 15 साल हुए थे और 4 मकान बना लिए ।* ऐसे व्यक्तियों को धंधा इसलिए मन्दा लग रहा है क्योंकि पहले की तरह कमाई नहीं हो रही है और *पांचवां मकान खरीदने* की जगह चौथा बेचना पड़ रहा है ।
जब हम कार स्टार्ट करते हैं तो शून्य से 60 किमी की स्पीड में पहुंचने में सिर्फ कुछ सेकंड लगते हैं क्योंकि हम इंजिन की पूरी ताकत इस्तेमाल कर लेते हैं । *लेकिन उसके बाद हम एक ही स्पीड पर चलते रहते हैं ,* जिसे अज्ञानी मंदी कह सकते हैं क्योंकि फिर और स्पीड नहीं बढ़ती है ।
जब नई परिस्थितियां पैदा होतीं हैं तो अर्थव्यवस्थाओं में पहले तेजी आती है । जब तेजी आती है तो उस से हर व्यक्ति फायदा उठाने के चक्कर में योग्य न होने पर भी उस में घुस जाता है । भीड़ बढ़ने पर उसमें अराजकता पैदा होने लगती है और फिर सरकार उसको नियंत्रित करने के लिए नियम लाती है जिसके बाद भीड़ वहां से छंटने लगती है , उसका आकर्षण कम होने लगता है और लोग उसे मंदी का नाम दे देते हैं ।
शेयर मार्केट की तेजी मंदी, रियल इस्टेट की तेजी मंदी इसका उदाहरण है । यह विश्व भर में होता रहता है , लेकिन भारत में विरोधी देश तक को नही छोड़ रहे , तो सरकार को व्यर्थ बदनाम करने से नही चूकेंगे ।,
भारत में किसी भी क्षेत्र में पहले से कोई नियम , कानून या प्लानिंग की ही नहीं जाती है । जब किसी क्षेत्र में तेजी आ रही होती है तो हर कोई उसमें घुस रहा होता है , सरकार खुश हो रही होती है कि टैक्स मिलेगा, लोगों को रोज़गार मिलेगा , वित्तीय संस्थाएं मुनाफे का सोचती हैं । कोई नहीं सोचता है कि कुछ महीनों या साल बाद जब इसमें मंदी आएगी , घपले बाहर आएंगे तो क्या होगा और क्या करना पड़ेगा ।
1987 में रिलायंस की लिस्टिंग के बाद बॉम्बे शेयर मार्केट बढ़नी शुरू हुई और नई कम्पनियों ने IPO को बढ़ावा देना शुरू किया । सरकार सोती रही और 1992 में 5000 करोड़ ( अब के 75000 करोड़ ) का हर्षद मेहता घोटाला हो गया । उसके बाद सरकार सो कर उठी । पारदर्शिता के लिए नए नियम बनाने शुरू किए , SEBI बनाई गई , NSE , डिपाजिटरी बनाई गई , इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग शुरू की गई । कहने का मतलब बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज के ख़ानदानी दलालों के ऊपर लगाम कसी गई। नतीजा यह रहा कि *1992 से 1999 तक शेयर मार्केट में मंदी छाई रही ।* लोगों को नए नियम कानूनों से तालमेल बिठाने में समय लगा और बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज के पुराने दलालों का धंधा बन्द हो गया और सबसे बड़े एक्सचेंज का दर्जा नए बने NSE को मिल गया ।
दूसरा उदाहरण निर्माण क्षेत्र का है । 2004 से सरकार ने होमलोन पर व्याज पर छूट शुरू की और बैंकों ने घर बनाने के लिए हर किसी को लोन देना शुरू कर दिया । मौका देखकर हर व्यापारी समूह ( किराने वाला , पान मसाले वाला, अखबार छापने वाला ) फ्लैट बनाने चल दिया और कहानी 2009 तक चलती रही । फिर डिफ़ॉल्ट होने शुरू हुए । बिल्डरों ने जनता से भी एडवांस लिया और बैंकों से भी लोन लिया और पूरा पैसा और ज़मीनें खरीदने में लगा दिया । सरकार इस बीच सोती रही ।
जब बैंकों के NPA और बिल्डरों के घोटाले सामने आने लगे तो *RERA बनाने के बारे में सोचा गया ।* लेकिन तब तक ग्राहकों का विश्वास उठ चुका होता है तो फिर बरसों मंदी रहना ही है । जनता ने फिर से किराए के घर में रहने को अच्छा समझना शुरू कर दिया । *अब बैंक और बिल्डर रोते रहें ।*
बिना सोचे पूर्व सरकारों ने खेतों में , नेताओं और व्यापारियों को एक लाख इंजीनियरिंग , लॉ , एम बी ए के कॉलेज खोलने की परमिशन दे दी । जिनमें 10 लाख रुपए और कुछ साल खर्च कर जब 2 करोड़ अधकचरे (नकल से पास )अज्ञानी डिग्री धारक निकलें , जो हर महीने 50 हज़ार मासिक पगार वाली सरकारी नौकरी मांगें तब उनको बोलो कि अपना व्यवसाय खुद करें ।
इसतरह बेरोजगारी तो बढ़ेगी ही ।
सरकार चाहे तो पहले नियम और नियामक संस्थान बनाए फिर धंधा शुरू करने की इजाज़त दे तो वर्षों की मंदी कभी न आए । *लेकिन छुटभैये नेताओं वाली मानसिकता की सरकारें बड़े बड़े धन्नासेठों के चंदे से ही चलती है तो उन्हें वह कैसे नाराज़ कर सकती है ।* इनकी दूरदर्शी सोच तो होती ही नहीं है सिर्फ अगले चुनाव को जीतने से मतलब होता है ।तो सरकार डैम के गेट की तरह किसी धंधे को खोल कर सो जाती है । फिर बाढ़ का जब नुकसान होता है तो राहत कार्य में जुट जाती है ।
मुख्य बात
अमेजोन, यूट्यूब , ऑटोमेशन अंतरार्ष्ट्रीय व्यापार संधियों से बदलती जा रही है , लेकिन हमारे व्यापारी और जनता तो 1980 वाले दौर में ही जी रहे हैं । उन्हें नोटबन्दी , GST , कंप्यूटर सबसे डर लगता है लेकिन ग्लोबलाइजेशन का फायदा भी चाहिए , इम्पोर्टेड सामान , व्हाट्सअप , लेटेस्ट मोबाइल भी चाहिए लेकिन धंधा , नौकरी तो पुराने वाले तरीके की ही चाहिए। GST, ऑनलाइन व्यवस्थाएं , नियम , कानून तो पिछले 5–6 साल से चर्चा में हैं लेकिन लोग उन्हें अभी भी अपनाने से कतरा रहे हैं , व्यापारी , अफसर उनकी काट ढूंढ रहे हैं , बजाए उसे मानने के।
नोटबन्दी सरकार का अच्छा कदम था , ठीक वैसे ही जैसे अनुच्छेद 370 का हटना । लेकिन उसको अरबपतियों ने जनता का , गरीबों का नाम ले लेकर कोसना शुरू किया । खुद मीडिया , व्यापारी , नौकरशाही , नेता उसमें फंसे थे जो आज गिरफ़्तारियों से स्पष्ट है । पर उस समय जनता से ले कर बैंक कर्मचारियों, उच्चतम न्यायालय ने हस्तक्षेप किया और पूरी प्रक्रिया निर्णायक दौर में पहुंची ही नहीं । और आश्चर्य कि , उसकी विफलता पर प्रश्न मोदीजी से पूंछे जाते हैं ??
आज अगर कश्मीर में जैसी सख्ती सरकार दिखा रही है और उच्चतम न्यायालय उसको समर्थन दे रहा है , वैसा ही अगर नोटबन्दी में एक महीने हुआ होता तो NPA , मल्ल्या , नीरव मोदी का किस्सा हुआ ही नहीं होता। ये लोग उसी वक्त पकड़ में आ गए होते ।
जुलाई 2017 में GST शुरू हुआ तो जनता को बताया गया कि अब उसे 28% की जगह 18% टैक्स देना होगा तो वस्तुएं सस्ती होंगी । लेकिन न तो निर्माता ने दाम घटाए, न सरकार ने कोई सख्ती की ।
*मुझे याद है होटल में जुलाई 2017 से पहले 22% टैक्स लग कर जो बिल आता था वह 18%GST लगने के बाद भी कम नहीं हुआ था । फिर सरकार ने उसे 5% कर दिया है ,* लेकिन रेस्टोरेंट वालों ने रातों रात दाम बढ़ाकर उसे बराबर कर दिया और *ग्राहक के लिए दाम में कोई कमी नहीं हुई ।*
GST से पहले ये लोग टैक्स ग्राहक से वसूलते तो थे पर जमा फिक्स्ड टैक्स करते थे तो बाकी टैक्स इनकी जेब में जाता था । GST लगने पर इनको टैक्स देना पड़ गया तो इन्होंने अपना मुनाफा घटाए बिना दाम बढ़ा दिए । जनता दोनो ओर से ठगी गई ।
ऐसा ही केबल और DTH वालों ने किया । सरकार का कहना था अपना चैनल चुनकर जनता अपना बिल कम करेगी , *लेकिन DTH वालों ने कारीगरी करके बिल पहले से भी ज्यादा कर दिया ।*
अब इन स्मार्ट लोगों और सरकार को जनता जवाब दे रही है खरीद कम करके । जो महीने में 4 बार रेस्टोरेंट जाते थे वे एक दो बार जा रहे हैं और दुकानदार मक्खियां मार कर मंदी का रोना रो रहे हैं । लोग DTH का कनेक्शन कटवा कर इंटरनेट पर चैनल ,यूट्यूब जिओ पर देख रहे हैं । लीवर और बाकी कम्पनियां मंदी की वजह से सामानों के दाम घटा रही हैं जो इन्होंने GST के टाइम भी नहीं किया था।
*मंदी कुछ भी नहीं है ।* यह आम जनता का बदला है व्यापारियों और सरकार से जो सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को एक ही बार में मार के खाना चाहते हैं । *गांधी जी भी यही कहते थे , जो चीज मंहगी हो , उसका त्याग कर दो या उसका प्रयोग कम कर दो , मुनाफाखोर अपने आप ठीक हो जाएंगे .*
गीता में कहा गया है कि
*संशयात्मा विनश्यति*
अर्थात जो दुविधा में रहता है वह नष्ट हो जाता है । तो इस बार की धूर्त मंदी में 1980 की लालची सोच से , पुराने चोरी के व्यवसाय
करने वालों का नष्ट होना तय है ।
संकलन