बेमिसाल ‘अटल’

एच सिंह

अटल जी का व्यक्तित्व ऐसा था कि हर कोई उनकी तरफ खिंचा चला आता था। यहां तक कि लाल कृष्ण आडवाणी ने कई बार पब्लिक प्लेटफॉर्म पर यह कहा कि उन्हें अटल जी जैसा बोलना नहीं आया। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें ताउम्र इस बात का कॉम्पलेक्स रहा कि वह अटल जी जैसा भाषण नहीं दे पाए।

यकीनन यह बात दावे से कही जा सकती है कि अगर वह राजनीति में नहीं आते, तो आज उनकी पहचान एक कवि या फिर पत्रकार की होती। एक बार अपने भाषण में उन्होंने खुद कहा था कि ‘मैं पत्रकार होना चाहता था, लेकिन बन गया प्रधानमंत्री।’ चुटकी लेते हुए उन्होंने यह भी कहा कि ‘आजकल पत्रकार मेरी हालत खराब कर रहे हैं। मैं बुरा नहीं मानता, क्योंकि मैं पहले ऐसा कर चुका हूं।’

25 दिसंबर, 1924 को ग्वालियर में पैदा हुए अटल बिहारी वाजपेयी को लिखने का शौक बचपन से ही था, लेकिन उनकी किस्मत उन्हें कहीं और ही ले आई। वाजपेयी ने ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज (अब लक्ष्मीबाई कॉलेज) से बी.ए. और कानपुर के डीएवी (दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज) से एम.ए. की शिक्षा प्राप्त की।

काफी कम उम्र से ही उन्होंने आरएसएस की शाखा में जाना शुरू कर दिया था। संघ से जुड़ने के बाद भी वह कविताएं लिखते रहे। देशभक्ति कविताओं के साथ ही वह अपनी लिखी कविताएं भी सुनाते रहते। उनका असाधारण तरीके से अपनी बात को रखना ही उनकी यूएसपी थी। ऐसे में उनके किस्से चलते-चलते श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पं. दीनदयाल उपाध्याय के कानों तक पहुंचे। और वाजपेयी जी की राजनीति में आने की राह खुल गई। यह वही श्यामा प्रसाद मुखर्जी हैं, जिनके बारे में अक्सर आपने भाजपाइयों को ‘जहां हुए बलिदान मुखर्जी वह कश्मीर हमारा है’ कहते हुए सुना होगा। पंडित दीनदयाल उपाध्याय भी आजकल खूब चर्चा में थे, क्योंकि उत्तर प्रदेश के एक शहर ‘मुगलसराय’ का नाम बदल कर ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर’ रख दिया गया।

इन दोनों नेताओं से मुलाकात के बाद वाजपेयी ने राजनीति में कदम रखा और पहली बार 1951 में भारतीय जनसंघ के सदस्य बने। अटल जी ने पहली बार 1955 में लोकसभा का चुनाव लड़ा था, लेकिन तब वह हार गए थे। 1959 में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर से जनसंघ के प्रत्याशी के रूप में उन्होंने चुनाव लड़ा और जीत कर पहली बार लोकसभा पहुंचे। इसके बाद तो उनकी आवाज लोकसभा में भी गूंजने लगी। यहां तक कि पंडित नेहरू भी अटल जी से प्रभावित रहते थे। एक बार नेहरू ने भारत यात्रा पर आए ब्रिटिश प्रधानमंत्री से वाजपेयी को मिलवाते हुए कहा था कि ‘इनसे मिलिए। ये हैं विपक्ष के उभरते हुए युवा नेता। हमेशा मेरी आलोचना करते हैं, लेकिन फिर भी मैं इनके भविष्य की खूब संभावनाएं देखता हूं।’ वाजपेयी 1977 से 1979 तक मोरारजी देसाई के नेतृत्व में भारत के विदेश मंत्री भी रहे।

भाजपा पहली बार 16 मई, 1996 में सत्ता में आई और अटल बिहारी बाजपेयी पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने। हालांकि, वह बहुमत साबित नहीं कर पाए थे, जिसकी वजह से सिर्फ 13 दिन में ही उनकी सरकार गिर गई। इसके बाद मार्च 1998 में उन्हें दुबारा सरकार बनाने का मौका मिला, लेकिन यह सरकार भी सिर्फ 13 महीने तक ही चल सकी। यह भी एक ऐतिहासिक घटना ही है कि 17 अप्रैल, 1999 को जयलिलता के समर्थन वापस लेने से उनकी सरकार मात्र 1 वोट से गिर गई थी। हालांकि, जयललिता के इस कदम से भाजपा को आने वाले आम चुनावों में फायदा हुआ और भाजपा गठबंधन ने एक बड़ी जीत के बाद अपनी सरकार बनाई। गठबंधन की बहुमत वाली सरकार में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ही बने और इस बार उन्होंने अपना कार्यकाल भी पूरा किया।

जब राजनीति से लिया संन्यास
कविता, भाषण या फिर लोकसभा। अटल बिहारी वाजपेयी जहां भी बोलना शुरू करते, उसकी दहाड़ हर तरफ गूंजती। लोकसभा में उनके एक भाषण से यह समझा जा सकता है कि वह सिर्फ कुर्सी की राजनीति करने सत्ता में नहीं आए थे। ‘यह कोई चुनाव में कुकुरमुत्ते की तरह से खड़ी होने वाली पार्टी नहीं है। यह जिस तरह की राजनीति चल रही है, मुझे रास नहीं आती। मैं छोड़ना चाहता हूं, लेकिन राजनीति मुझे नहीं छोड़ती’। समझा जा सकता है कि क्यों सिद्धांतों के पक्के अटल बिहारी वाजपेयी ने 13 महीने में अपनी सरकार गिराना मंजूर किया, लेकिन जयललिता की गलत मांग (तत्कालीन डीएमके सरकार को बर्खास्त करने की मांग) के आगे झुकना नहीं। अटल बिहारी वाजपेयी जब तक राजनीति में सक्रिय रहे, सबने उनका सम्मान किया। चाहे पक्ष में रहे या विपक्ष में, सब उनके असाधारण व्यक्तित्व के मुरीद रहे। 13 मई, 2004 को अटल बिहारी वाजपेयी अपनी कैबिनेट की आखिरी बैठक खत्म कर राष्ट्रपति भवन के लिए चल दिए थे। भाषण कलाओं के माहिर अटल बिहारी वाजपेयी पिछले 14 सालों से बीमार चल रहे थे और अंततः उन्होंने 16 अगस्त को आखिरी सांस ली।

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