धरती का भगवान – किसान, क्यों है परेशान। चलों गाँव की ओर… – श्री गुरुजी भू

किसान समाज का शिल्पी ही नही वरन् मैं तो किसान को धरती पर भगवान का ही स्वरूप मानता हूँ।
जिसका छोटा सा सुखी संसार गाँव में ही होता है। सहज, सरल, मधुर व्यवहार। सबका साथ-सबका विकास। अर्थात सबको साथ लेेकर चलना, सबका विशेष ध्यान रखना।

अब जाकर मेरा शोध कार्य मेरी समझ में आया है। मुझे समझ आया कि गाँव कोई पिछड़े अज्ञानियों के चौपाल ही नही अपितु लाखों करोड़ों वर्षों के शोध का परिणाम थे। प्राकृतिक आभामण्डल में बसे ये गांव आत्म निर्भर होते थे।
जिन्हें अपने अपार ज्ञान प्रयोग व दूरदर्शिता के मेल से हमारे प्राचीन वैज्ञानिकोंं अर्थात मुनियों, पूर्वजों ने आकार दिया था।

छोटी सी परिधि में न्यूनतम आवश्यकता की सभी वस्तुऐं। शुद्ध जल, शुद्ध वायु, शुद्ध आहार ही जीवन का आधार है। और उत्पादकों को संभालने, सुधारने व पुनर्निर्माण का ठोस सरल ज्ञान। देशी प्राकृतिक बीज, खाद।

मैने किसान को बडा मौसम वैज्ञानिक के रुप में भी देखा है।

सर्व सम्पन्न गांव

शायद ऐसी एक भी वस्तु आप न खोज पाओ जो फिर से काम न आ जाती हो। जो गाँव में न बन सकती हो। जिसके निपुण कारीगर वहाँ न हो। 36 तरह के विशेषज्ञ अर्थात इतने कामों को करने वाले समाज के लोगों का समूह। एक आदर्श गाँव होता है। किसी समय हर बडे गाँव में एक गुरुजी का गुरुकुल भी होता था।

 

जातिवाद नही उद्योगपति

खेती बाड़ी, गुरुजी, लुहार, चरमकार, जुलाहा, कुम्हार, नाई, धोबी, बढ़ई, जोगी, पुरोहित, धींवर, भंगी, बनिया, दर्जी, केवट, भडभुज्जे, तेली, किसान, मजदूर, पहलवान, दाई, रंगरेज़, वैद्य आदि। ये सब जातियाँ नही थी वरन् ये विशेषज्ञ थे अपने किसानी के अलग अलग काम के। दिनचर्या की नित्यप्रति की आवश्यकताओंं की पूर्ति की फैक्ट्री के मालिक थे ये। उद्यमी भी यही थे। अभियंता भी, तकनीकी विकास के विशेषज्ञ भी, आपसी सहयोग के सहकारिता मन्त्री भी यही थे।

मेरी स्मृतियां

मुझे आज भी स्मरण है कि हमारे गाँव में जब खेत से फसल आती तो पहले घर के चौक में रखी जाती थी। वहींं से बढ़ई, लुहार, चर्मकार, जुलाहा, कुम्हार, नाई, धोबी, बढ़ई, जोगी, पुरोहित, धींवर, भंगी, बनिया, दर्जी, केवट, भडभुज्जे, तेली, किसान, मजदूर, पहलवान, दाई आदि सभी का हिस्सा देकर ही फसल का बचा भाग ही घर के अन्दर जाता था।

 

 भेद भाव रहित मधुर जीवन

तब किसी भी तरह का कोई भेद भाव नही दिखता था। ना कोई ऊँच, ना ही नीच । कोई भी काम छोटा बड़ा नही। काम का मतलब काम। सभी मिलकर, कंधे से कंधा मिलाकर जीवन जीते। एक दूसरे के सुख दुख का हिस्सा होते। न सरकार चाहिए न पुलिस न कानून। अपना गाँव अपना ही सम्मान।

गाँव में ही डॉक्टर व घर में ही अस्पताल

बच्चा पैदा होता तो दाई होती। बूढ़ी काकी दादी सब जानती कि क्या खाना है, क्या नही खाना , परहेज आदि। आठ दस बच्चों को सकुशल बिना ऑपरेशन जन्म देती बहादुर माँ। न कोई दवा न काटपीट।

संपूर्ण स्वदेशी

सभी वस्तुए घर की बनी, गाँव की बनी। शुद्ध स्वदेशी।
कपडा, रजाई, गद्दे, चारपाई, दाल, चावल, साग, सब्जी, फर्नीचर, बर्तन, कृषि यंत्र आदि।

तालाब की गरिमा

सभी के पशु गाँव के तालाब में नहाते थे, उसी में लोग भी नहाते। इतना शुद्ध पानी कि पी भी सकते। बल्कि पीते थे। चमार की भैंस जहाँ नहाती उस पानी को जाट, ब्राह्मण, त्यागी, गुजर, लुहार आदि भी पीता। जातिवाद की घृणा ढूंढ़े नही मिलती थी।

गाँव का विवाद – गाँव में ही न्यायालय

सीधे सच्चे पर मूल बात, शिक्षा, सिद्धांत अधिकांश जानते। बड़े बड़े फैसले वही हो जाते। पंचायत में ही। गाँव की बहन बेटी सबकी साझा होती। गाँव तो गाँव पडोसी गाँवों की भी।

प्रशिक्षण संस्थान

अपार शक्तिशाली पशुओं को वश में करके खेती के काम लेते। सबकी सुध लेते थे। कुत्ते, कौवे, चिड़िया, गाय सब अपने से दिखते थे। अपने ही परिवार का हिस्सा होते थे। सभी बच्चे बैल व भैंसे की नाथ फूटते हुए भी देखता था। खुरी ठुकते भी, बधिया होते भी, पैदा होते भी, मरकर गडते भी। मरे पशु को चर्मकार द्वारा ले जाना, फिर उसकी खाल उतारना। खाल उतरने के बाद पशु मांस गिद्धों, चील, कव्वौं द्वारा नोच कर खाना मुझे आज भी स्मरण है।

जोखिमों का अम्बार

नंगे पाँव खेत में चलता तो केचुंए गिजाई बहुत बचाने पर भी पाँव तले आ ही जाती थी। हल चलाते समय खरगोश के बच्चों को बचाता भी और कभी चूहों को भगाता भी था किसान। सर्दी, गर्मी में लू, बरसात में उमस, शीत लहर तूफान, आँधी सब झेलता था किसान। पकी फसल ओलावृष्टि से बर्बाद हो जाती, तो बची हुई आन्धी में उड जाती। फिर बची हुई बारिश में सड जाती तब कही कुछ बची हुई घर में आती। और ये सब झेल कर ऐसा हो जाता कि फौजी बेटे की लाश पर गर्व से कहता कि काश और बेटे भी होते तो उन्हें फौजी बनाता। सम्मान को शहीद यदि प्रिय पुत्री भी करती तो हँस कर बलि भी दे देता।

राष्ट्र भक्त किसान

जब कभी देश पर संकट आया तो यही किसान अपने हृदय के टुकड़ों को युद्ध की समिधा बना डालता था। लड मरता था। साहसी सभ्य संस्कारी सादगी का सच्चा उदाहरण किसान ही है।  जब भी राष्ट्र धर्म की रक्षा का सवाल उठते ही कृषि के औजारों को हथियार तुरंत बना लेता।

प्रकृति प्रेमी व पर्यावरण संरक्षण करता किसान

क्या नही करता था वो अनपढ़ वैज्ञानिक किसान मजदूर। पेड लगाता, पानी बचाता, प्रकृति से प्रेम करता। कहता नही करता। वैदिक सिद्धान्तों को जीता। उसके लहू में थी वो बातें जो आज पढे लिखे विकासशील कहे जाने वाले भी नही जानते।

 

मानवतावादी

शुद्ध खाता शुद्ध खिलाता, पाप से डरता, भगवान से डरता। कोई रसायन नही, कोई दवाई नही।
दूसरे के दुख से दुखी और सबके सुख की कामना करता था किसान। कर्ज से डरता था। सच का साथी। सम्मान को चरित्र को सर्वोच्च वरीयता देता। स्वस्थ था किसान।

 

अंग्रेजी नीतियों ने विनाश किया

इतनी खूबियों वाले इस जीव को आजादी के पहले अंग्रेजी हुकूमत ने व आजाद भारत की सरकारों ने सदा निशाना बनाया और आज भीख मांगने पर मजबूर कर दिया है। खेती जो वैदिक कर्म कहा जाता था आज घाटे का सौदा बनाकर खत्म किया जा रहा है। अपनी ही फसल के आधे तिहाई दाम भी समय पर नही मिल पाने के कारण वो धरती का भगवान, महान समाज का शिल्पकार आज भिखारी हो चला है। धन के अभाव में धर्म गौण होकर मृतप्राय हो चला है। फिजूल की सियासत ने मानसिक गुलाम बनाकर कमर तोड दी है। संगठन रहे नही। शक्ति बची नही। संस्कार दारू के ठेके पर झूलते हैं। संबंध कमजोर होकर टूट गये हैं। दर्जनों कर्मखंडो का केन्द्र बिन्दु किसान अधमरा होकर मौत की राह देख रहा है।

गाय जो धुरी थी धरती की। अनाथ होकर तडपती फिरती है। बैल जिसके कंधों पर समाज का पूरा अर्थशास्त्र टिका था। विलुप्त होने की कगार पर है। सामाजिक पूंजी व सुदृढ़ ताने-बाने को सस्ती घटिया राजनीति निगल चुकी है। न बेटियाँ सुरक्षित है न बहुएंं। टीवी मोबाइल की सहायता से विष बीज मानस पटल पर विशैले जंगल बनकर भविष्य को निगलने को तैयार बैठे हैं ।

वैदिक परिभाषाओं की हत्या करके धूर्तों ने पाखंडी वातावरण बनाकर असल ज्ञान को विलुप्त सा कर दिया है। आज तो टीवी पर धार्मिक धारावाहिक भी षडयंत्रकारी शक्तियों के हाथ में है। जिनमें सारी कहानियों को विषैला बना कर पेश किया जा रहा है। यथार्थ से इनका कोई सरोकार नही है।

किसान व गाँव चौतरफा नित नये नये षडयंत्रों का शिकार होकर समाप्ति की सीमा पर खड़े हैं।

आओ कुछ विचार करें कुछ प्रयास करे कुछ योजना बनाये कुछ और दिन जीवित रहें ।

आओ चले गाँव की ओर,

आओ चले प्रकृति की ओर।

 

श्री गुरुजी भू

(प्रकृति प्रेमी, मुस्कान योग के प्रणेता, विश्व चिन्तक)

 

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