भारत की राजधानी – अयोध्या से दिल्ली तक

#भारत की भावी राजधानी

पुरातन पौराणिक इतिहास में भारत की सत्ता का केंद्र व राजधानी थी अयोध्या। ‘अयोध्या’ जिसे कोई युद्ध में जीत न सके सिवाय ‘काल’ के जिसे श्रीराम के शासन से पवित्र हुई अयोध्या के चरम वैभव से आतंकित होकर स्वयं मानवरूप में आकर उसके पतन की पटकथा लिखनी पड़ी।

श्रीराम चले गये और अयोध्या उजाड़ हो गई।

श्रीराम के ज्येष्ठ पुत्र और उत्तराधिकारी कुश ने ‘कुशपुर’ जो आज पाकिस्तान में ‘कसूर’ कहलाता है, से लौटकर पुनः अयोध्या का वैभव लौटाने की असफल कोशिश की परंतु काल ने तो जैसे अयोध्या के पराभव की ठान ही ली थी। महाराज कुश की हत्या अयोध्या के पतन की दिशा में एक और कदम साबित हुई। महाराज अतिथि ने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध तो लिया पर साम्राज्य का पतन न रुक सका और रुकता भी कैसे जब ईश्वरावतार श्रीराम के वंश में अग्निवर्ण जैसे कामुक नरेश पैदा होने लगे। सूर्यवंश पतन की अंतिम कगार पर तब पहुंच गया जब धर्म के प्रतीक श्रीराम का वंशज बृहद्वल कुरुक्षेत्र में पापी दुर्योधन के पक्ष में खड़ा हो गया और सोलह वर्षीय किशोर अभिमन्यु के हाथों गौरवहीन मृत्यु को प्राप्त हुआ।

अयोध्या के पतन के बीच भरतों और पूरुओं के विलीनीकरण से शक्तिशाली हुये कुरुओं के एक अज्ञात से नरेश हस्ती द्वारा स्थापित हस्तिनापुर के भाग्य जाग उठे जिसके पास अभी तक दौष्यन्ति भरत की सुनहरी यादें भर थीं लेकिन भीष्म और पांडवों के उदय ने हस्तिनापुर को भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली नगर के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया।

यूं तो इस काल में कीकर के जंगलों व इंद्र संरक्षित शक्तिशाली नाग जाति से अटा कुरुओं का प्राचीन अभिशप्त क्षेत्र खांडवप्रस्थ ‘इंद्रप्रस्थ’ के रूप में छः महीने तक पांडव साम्राज्य के अन्तर्गत भारत की राजधानी रहा लेकिन उसके सत्ताकेंद्र बनने में अभी शताब्दियों का समय बाकी था। इस बीच सम्राट जनमेजय के काल तक हस्तिनापुर भारत की राजनैतिक सत्ता का केंद्र बना रहा। कुछ ही समय बाद महाराज निचक्षु के काल में आई बाढ़ में हस्तिनापुर का गौरव भी बह गया।

शताब्दियों के बिखराव के बाद उदायी द्वारा स्थापित पाटलिपुत्र को महापद्मनंद ने भारत की शक्ति का केंद्र बनाकर जरासंध की अतृप्त आत्मा को राजनैतिक शांति दी और मौर्य साम्राज्य ने तो पाटलिपुत्र को भारत की ही नहीं विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली नगरी बना दिया जिसके खुले तोरणों से युद्धवेश में सजे सम्राटों को सेना के साथ निकलते देख सुदूर यूनान तक के राजाओं के पेट में गुड़गुड़ाहट होने लगती थी।

पाटलिपुत्र ने बीच में यूनानी, शक-मुरुण्ड और कुषाणों के आक्रमण के कारण दुर्दिन देखे और शुंगों ने ‘साकेतधाम’ के नये नाम रूप में पुनः अयोध्या का रुख किया लेकिन गुप्तों ने एक बार फिर उसे विश्व का सत्ताकेंद्र बना दिया।

इस बीच पुरुरवा के वंशज विश्वरथ के पिता महाराज गाधि द्वारा स्थापित कान्यकुब्ज के भाग्य को मौखरियों और वर्धनों ने चमका दिया और लगभग चार सौ साल तक कान्यकुब्ज ‘कन्नौज’ के रूप में भारत का सत्ताकेंद्र बना रहा। प्रतिहारों, पालों व राष्ट्रकूटों के बीच तिकोने खूनी संघर्ष के बाद अंततः प्रतिहारों ने कन्नौज को हथिया लिया और दिगदिगंत में कन्नौज की प्रसिद्धि उसके इत्र की भांति फैलने लगी।

इधर दसवीं शताब्दी में अफगानिस्तान में हिंदुकुश की विष्णुपद पहाड़ी से विष्णुस्तंभ को लाकर महरौली में स्थापित कर अनंगपाल तोमर ने अपने पूर्वज पांडवों द्वारा स्थापित इंद्रप्रस्थ को ‘ढिल्लिका’ नाम देकर पुनर्स्थापित भले ही किया हो लेकिन महरौली की ढीली किल्ली अफगानिस्तान से हिंदूराष्ट्र के पराभव का अभिशाप भी साथ लाई।

विदेशी बर्बर इस्लामी आक्रांताओं के अधीनअगले सात सौ पचास साल तक दिल्ली भारत में विदेशी सत्ता का केंद्र बनी रही।

बीच में कलकत्ता भी कुछ सौ साल तक भारत का सत्ता केंद्र बना पर अंग्रेजों की बदकिस्मती उन्हें बेवफा दिल्ली की ओर खींच लाई और फिर अंग्रेजों का तंबू पैंतीसेक साल में उखड़ गया।

पर ऐसा लगता है कि दिल्ली पर लगा अभिशाप अभी भी कायम है। पिछले सत्तर साल में बदनाम गांधी परिवार के कुशासन ने भारत को आज शाहीनबाग के रूप में गृहयुद्ध के मुहाने पर खड़ा कर दिया है जहाँ से इस राष्ट्र को एक और विभाजन की धमकियां दी जा रही हैं।

सात बार चमगादड़ों का बसेरा देखने वाली इस नगरी में वाकई अभिशप्त आत्माओं का वास प्रतीत होता है जिसने शताब्दियों से दो जिस्म एक जान रहे हिंदू-सिखों के बीच 1984 की दरार डाल दी।

दिल्ली की इस विषैली फिजाओं और पानी की तासीर में भी कुछ बेग़ैरती है कि जिसकी वजह से केजरीवाल जैसे धूर्त विखंडनकारी व्यक्ति मुफ्तखोरी का लालच देकर सत्ता पा जाते हैं।

अब जबकि नरेंद्र मोदीजी राम जन्मभूमि ट्रस्ट का गठन कर चुके हैं और उत्तरप्रदेश के तेजस्वी मुख्यमंत्री अयोध्या के पूर्ण विकास का संकल्प व्यक्त कर चुके हैं तो मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि निकट भविष्य में अयोध्या भारत की राजधानी बनने जा रही है।

ऐसा होने पर शायद भारत दिल्ली के अभिशाप से मुक्त हो सके क्योंकि अयोध्या भारत की नाभि है और तब शायद हम ऋषभदेव की, आदि सम्राटभरत की, महाराज सगर की, चक्रवर्ती सम्राट रघु की और सबसे बढ़कर श्रीराम की उस पुरातन अयोध्या के हम पुनः दर्शन कर सकें जिसकी स्तुति में वेद कहते हैं–

“अष्टाचक्रे नवद्वारे पूरयोsनाम अयोध्या”

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