२२ ०८ १९६२
महानन्द जी के नाना प्रश्नों का उत्तर ।
जीते रहो
देखों मुनिवरों! अभी-अभी हमारा पर्ययण समय समाप्त हुआ। आज हम तुम्हारे समक्ष, वेदों का गान गा रहे थे। आज हम पूर्व मन्त्रों में उस प्रभु की याचना कर रह थे जो हमारे जीवन का साथी बना हुआ है, अन्तः करण में विराजमान है, महान इस सृष्टि का निर्माण करने वाला है।
आज जब हम विचार लगाते है, दार्शनिक ओैर यौगियों पर जाते हैं, तो सब ही महान आचायों का अब तक एक ही मन्तवय प्रस्तुत हुआ है, कि किसी भी मानव को किसी भी देव कन्या को यदि अपने जीवन को ऊँचा बनाना है, तो परिश्रम की आवश्यकता है। भगवान कृष्ण ने यह ही कहा कि भाई! परमात्मा को जानने के लिए निष्काम और इन्द्रियों को शासन में करना है, मन की तीव्र गति और अन्तःकरण को जानना है।
कर्म की निष्कामता
मुनिवरों! मेरे प्यारे महानन्द जी ने एक समय ऐसा कहा कि महाराजा कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि हे अर्जुन! तू आज मुझे प्राप्त हो, जो भी कार्य करना है वह निष्काम कर। आज के मानव ने इस रहस्य को जाना नही। यह क्यों कहा है? जब हम गुरू के द्वार जाते हैं, तो गुरू कहते हैं कि हे शिष्य! यदि तुझे जिज्ञासु बनना है, तो जो तेरे पास है वह मुझे दे| मेरे समीप होकर के और मेरे अर्पण होकर के कार्य कर। यह ही अभिप्राय महाराजा कृष्ण और महाराजा अर्जुन के सम्बन्ध में पाया जाता है। गुरू शिष्य का सम्बन्ध होने के नाते महाराजा कृष्ण ने यही कहा कि यदि तुझे महान कार्य करना है, महान बनना है तो अपने जीवन के जितने साकल्य है, जितनी योजनाएं है, जितने संकल्प विकल्प हैं सब मेरे अर्पण कर और निष्काम कार्य कर। आज जिनका तू मोह कर रहा है, वह तो पूर्व ही नष्ट हुए है। यह आज नहीं तो कल अवश्य नष्ट हो जाएंगे। महाराजा कृष्ण के इन आदेशों को मान कर अर्जुन ने युद्ध किया।
महापुरुषों के प्रति दायित्व
आज मानव यह कह रहा है कि महाराजा कृष्ण ने भिन्न भिन्न शब्दार्थो में यह कहा है कि मैं सर्वज्ञ हूँ मैं शक्तिमान हूँ। मानव ने इस रहस्य को जाना नही। जिन गुरूओं ने उस विद्या को जाना है, जिससे अपने आत्म तत्त्व को जाना जाता है, महान् अपनी कलाओं को जाना जाता है, वह गुरू कहा करता है, कि मैंने सब कुछ जानापरमात्मा ने मुझे सब शक्ति प्रतान की है ,मैं तेरे पापों को अवश्य नष्ट कर दूंगा। परन्तु आज मानव यह कहता है कि सिद्धान्त के अनुसार पाप शान्त नही होते, भोगने ही पड़ते है।
मुनिवरों! जब शिष्य जिज्ञासु बन जाता है और यह मान लेता है, कि तेरे जा पाप है, वह गुरू के अर्पण है ते पाप तो उसी को भोगने पड़ते है, परन्तु उसके मन का संकल्प हो जाता है, कि तेरे जो पाप है, वह गुरू के अर्पण हैं, तेरे द्वारा कुछ नहीं। और इस प्रकार वह योगी और जिज्ञासु बन जाता है। आज हमें इन विचारों को विचारना है।
मुनिवरों! एक का नही, सब ही महान व्यक्तियों का ऐसा ही मन्तवय माना गया है। भगवान राम से भी हनुमान ने जब माता सीता के लिए लंका जाने लगे, तो पूछा कि महाराज! मैं कौन सी शक्ति से जाँऊ? उस समय राम ने कहा था, कि तेरे में जो भय है, जो तेरे हृदय में साकल्य है, उन सब को मेरे में अर्पण कर, अपने अंहकार को, मेरे अर्पण कर और तू माता सीता की खोज कर, मैंने वह शक्ति पाई है, कि मैं उन पर विजय प्राप्त कर लूंगा। आज उन्हीं विचारों को लेकर अपने जीवन को ऊँचा बनाना है। मेरे प्यारे लोमश मुनि ने बहुत कुछ कहा, कि हमारे हृदय का गौरव तो यही है कि ऐसी महान आत्माओं को परमात्मा न मान कर इसको शक्तिमान तथा महान आत्मा मान कर उनकी पूजा करें, तो हमारे जीवन का एक बहुत ऊँचा रहस्य बन जाएगा। काव्य लिखने वालों ने महाराजा राम व कृष्ण के सम्बन्ध में ऐसी रचना की, कि उन्हें भगवान के तुल्य माना | परन्तु तार्किक समाज में उनका कोई मूल्य नही माना गया। जिन महान आत्माओं ने उनके जीवन के रहस्य को जाना और जिनके जीवन को देखा वह इन वार्त्ताओं को जानते है। आज मानव बहुत दूर चला जाता है, और कह रहा है कि यदि वह उत्पन्न न होते, तो इस कार्य को कौन करता, परमात्मा यदि न आता, तो उस अमुक व्यक्ति को कौन नष्ट करता?
अरे मानव! यह तो तेरा एक विकल्प है। यह जो माता के गर्भ से उत्पन्न हुआ हैं, पंचभौतिक शरीर से उत्पन्न हुआ है, उसका आज नही तो कल अवश्य विनाश हो जाएगा। उसका शरीर छूटना अनिवार्य है। आज परमात्मा को यदि यह कह दिया जाएं, कि वह जन्म लेकर किसी के शरीर को नष्ट करने आया है, तो यह तुलना कदापि भगवान से नही आती। दार्शनिक समाज में यह वार्त्ता कदापि भी मान्य न होगी, जिसने माता के शरीर से जन्म लिया है, माता के गर्भाशय से जिसकी पालना हुई है, उसका इस शरीर से छूट जाना अनिवार्य है।