सत्य ही सनातन धर्म है : श्री गुरुजी भू

“सत्य ही सनातन धर्म है”
शोधार्थी : श्री गुरुजी भू
धर्म – सत्य को धारण करना ही धर्म है। अर्थात मनुष्यों द्वारा उन सद्गुणों के धारण व आचरण करने को धर्म कहते हैं जो सत्य पर आधारित हों, अज्ञान व अन्धविश्वास से सर्वथा रहित हो तथा जिनके आचरण से मनुष्य का इहलोक व परलोक दोनों सुधरते हो। ये सर्वोत्तम पद्धति ही धर्म है, जो सृष्टि के आरम्भ काल से भारत भूमि आर्यावर्त में प्रचलित है, जिसका मूल-आधार ईश्वर प्रदत्त ऋषियों द्वारा शोधित चार वेदों का ज्ञान है। मनुष्यों के जो आचरण वेदों की शिक्षाओं से ओत प्रोत हो उसे ही सनातन धर्म कहा जाता है। ऐसा धर्म संसार में कौन सा है? इसका एक ही उत्तर है – “सनातन” धर्म वही है जो वेद व ऋषियों के वेदानुकूल ग्रन्थ उपनिषद, दर्शन, प्रक्षेप रहित शुद्ध मनुस्मृति में प्रतिपादित है। अथवा जो वेदों के महान प्राचीन ऋषियों एवं आधुनिक ऋषि स्वामी दयानन्द के वेद एवं ऋषियों के ग्रन्थों पर आधारित सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित वेदभाष्य आदि ग्रन्थों में वर्णित है। प्राचीन ऋषियों में महान ऋषि श्रृंगीऋषि के इस युग में (ब्रह्मचारी कृष्णदत्त जी) के प्रवचनों द्वारा हम जान पाये हैं कि सृष्टि के आरम्भ से भारत व विश्व के सभी देशों में वेदों में निर्दिष्ट कर्तव्यों को ठीक से निर्वहन करना ही धर्म माना जाता था। तथा इसी की शिक्षा सभी ऋषि व विद्वान दिया करते थे। ऋषियों ने वेदों की शिक्षाओं को ही सरल करके उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में उनका विधान किया जिससे वेदावलम्बियों को धर्मपालन में किंचित असुविधा न हो। इतिहास खगालने से पता चलता है कि महाभारत काल से पूर्व तक वेद ही पूरे संसार के धर्म ग्रन्थ थे। तब न पारसी, न बौद्ध व जैन और न ही ईसाई व इस्लाम मतों का अस्तित्व तक नही था। सारे संसार के लोग वेद मत को ही अंतिम विज्ञान स्वीकार करते थे।
महाभारत के बाद भारत सहित विश्व में वेदों का अध्ययन व अध्यापन बाधित हुआ। वेदों का प्रचार व उसके महत्व को लोग भूलते गये और उनका स्थान वेदों के रूढ़ अर्थों व विकृत अर्थों जो भ्रान्तियों से युक्त थे, ने ले लिया। महाभारत से लेकर ऋषि दयानन्द (1825-1883) के काल तक वैदिक धर्म का निरन्तर ह्रास होता रहा। उसके बाद  जिसका कारण वेदों के अर्थों के न जानने वाले ऋषि आदि विद्वानों का विद्यमान न होना एवं धर्म से जुड़े कुछ लोगों के स्वार्थ थे जो वेदों के यथार्थ अर्थ जानने का प्रयास ही नहीं करते थे और न अन्य वर्णों को वेदाध्ययन की समुचित सुविधायें थीं। इसी कारण अज्ञान में वृद्धि होने से ज्ञानयुक्त धर्म का स्थान अज्ञान व अन्धविश्वासों ने ले लिया और इसके साथ समाज में भी मिथ्या ज्ञान व अन्धविश्वासों से युक्त जन्मना-जातिवाद आदि का प्रचलन हुआ। इस काल में स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन ही नहीं अपितु वेद मन्त्रों के सुनने व उच्चारण करने के अधिकार को भी छीन लिया गया और यदि कोई वेद को जानने का प्रयास करते हुए मन्त्र का उच्चारण करता व सुनता था तो उसे यातनायें दी जाती थी। इसी कारण से विभिन्न मत-मतान्तर उत्पन्न होकर वेद ज्ञान का सूर्य अस्त हो गया और वैदिक धर्म का स्थान अविद्या व अन्धविश्वासों से युक्त पौराणिक एकाधिक मतों यथा वैष्णव, शैव, शाक्त आदि ने ले लिया। यदि वैदिक धर्म में अज्ञान व अन्धविश्वासों का मिश्रण न हुआ होता तो न तो बौद्ध-जैन व अन्य मत ही उत्पन्न होते और न देश मुसलमानों व अंग्रेजों का गुलाम हुआ होता। महर्षि दयानन्द को भी तब वेद व विद्या का प्रचार कर वैदिक धर्म का पुनरुद्धार करने की आवश्यकता नहीं थी। महर्षि दयानन्द जी ने जो कार्य किया वह प्राचीन वैदिक सनातन धर्म के सुधार व संशोधन का कार्य था जिसे वेदों के पुनरुद्धार के नाम से भी जाना जाता है।
 इसके बाद श्रृंंगी ऋषि के अवतार (ब्रह्मचारी कृष्णदत्त जी) ने अपने प्रवचनो में लुप्त वेद मंत्रो का उदभव हुआ जिन्हे महर्षि दयानंद भी सारे संसार में नही खोज पाये थे।
यह भी बता दें कि वेदों का प्रकाश परमात्मा से सृष्टि के आरम्भ में हुआ था जबकि 18 पुराणों की रचना कुछ लोगों ने वास्तविक लेखक का नाम छुपा कर ऋषि वेदव्यास जी के नाम से की जिससे लोग भ्रमित होकर इन पर विश्वास कर लें। सभी पुराणों की रचना का काल लगभग विगत 500 से 2000 वर्षों के बीच का है। पुराणों में परस्पर विरोधी एवं अविद्यायुक्त वचनों की भरमार है तथा अविश्वसनीय इतिहास भी है जिस कारण यह ग्रन्थ धर्म ग्रन्थ के महिमापूर्ण आसन पर विराजमान नहीं हो सकते।
लेखक: प्रकृति प्रेमी, पूर्व टीवी चैनल के सम्पादक, संचालक, अध्यात्मिक शक्तियों के शोधकर्ता है।
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