भादौ की छठ : दूध और अन्न के व्यंजन की स्मृति दूधारणी

 

दाऊ भैया : बलदेव : संकर्षण
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कृषि और उत्पादों के संस्करण के जनक जिनको खेती से जुड़े समाज ने प्रथमत: महत्व दिया। विष्णु धर्मोत्तर पुराण के अनुसार इनके चिह्न हल और मूसल के अंकन से कृषि करने वाली स्त्रियां अपने घरों की भित्तियां सजाती थीं ताकि समाज जनों को खेती के महत्व का बोध हो। भागवत जन कृषि को महत्व देने वाले हुए क्योंकि यज्ञादि सभी अनुष्ठान उत्पादन से ही संभव होते हैं।

भादौ की अमावस्या से लेकर आश्विन तक के सारे पर्व कृषिकर्म, पशुपालन, जीविका और जीवन चर्या के लिए अर्जित होते गए अनुभवों के जोड़ हैं। छठ तो गाय जैसे पशुपालन और उससे प्राप्त दूध में धरती से प्राप्त अन्न को भाप कर खीर खाने, खिलाने का पर्व है। इसके साथ कृषि क्रिया संकर्षण की स्मृतियां जुड़ी है जो बाद में बलदेव का कृषि उजाड़ने वाले दुष्ट के संहार और हली होने के कारण नाम हुआ। जब लोक देवता देवनारायण का बलदेव और वासुदेव में अंतर विलय हुआ तो यह पर्व देवजी की छठ या भैरव की जागरण की छठ मान कर मनाया जाने लगा। इसका नाम है दूधारणी। यह बलदेव की पूजा का दुग्‍धपर्व है।

मेवाड-मालवा में भादौ मास में प्राय शुक्‍ल पक्ष की छठ से आठौं तक कई जगह ‘दूधारणी’ पर्व मनाया जाता है। यह पर्व अहीर-गुर्जरों के भारत में प्रसार के काल से ही प्रचलित रहा है और खासकर कृषिजीवी जातियों की बहुलता वाले गांवों में मनाया जाता है।

यद्यपि आज यह देवनारायण की पूजा के साथ जुड गया है, मगर यह बलदेव की पूजा का प्राचीन लोकपर्व है। उस काल का, जबकि बलदेव को संकर्षण कहा जाता था। वे हलधर है, हल कृषि का चिन्‍ह है और कर्षण होने से वे संकर्षण अर्थात हल खींचने वाले कहलाए। मेवाड के नगरी मे मिले ईसापूर्व पहली-दूसरी सदी के अभिलेख में वासुदेव कृष्‍ण से पूर्व संकर्षण का नाम मिलता है।
मेवाड में बलदेव के मंदिर कम ही हैं, पहला नगरी में नारायण वाटिका के रूप में बना और फिर चित्‍तौडगढ जिले में आकोला गांव में 1857 में महाराणा स्‍वरूपसिंह के शासनकाल में बना।

इस पर्व के क्रम में जिन परिवारों में दूधारू पशु होते हैं, उनका दूध निकालकर एकत्रित किया जाता है। प्राय: पंचमी तिथि की संध्‍या और छठ की सुबह का दूध न बेचा जाता है, न ही गटका जाता है बल्कि जमा कर गांव के चौरे पर पहुंचा दिया जाता है। वहीं पर बडे चूल्‍हों पर कडाहे चढाए जाते हैं और खीर बनाई जाती है। पहले तो यह खीर षष्ठितंडुल (साठ दिन में पकने वाले चावल) अथवा सांवा (ऋषिधान्‍य, शाल्‍यान्‍न) की बनाई जाती थी मगर आजकल बाजार में मिलने वाले चावल से तैयार की जाती है।
इस खीर का ही पूरी बस्ती के निवासी पान करते हैं, खासकर बालकों को इस दूध का वितरण किया जाता है। बच्‍चों को माताएं ही नहीं, पिता और पितामह भी मनुहार के साथ पिलाते हैं।

इस पर्व के दिन गायों को बांधा नहीं जाता, बैलों को हांका नहीं जाता। प्राचीन लोकपर्वों की यही विशेषता थी कि उनमें आनुष्‍ठानिक जटिलता नहीं मिलती। उदयपुर के पास कानपुर, गोरेला आदि में यह बहुत उत्‍साह के साथ मनाया जाता है ओर पलाश के पत्‍तों के दोनें बनाकर उनमें खीर का पान किया जाता है। (श्रीकृष्‍ण जुगनू – मेवाड का प्रारंभिक इतिहास, तृतीय अध्‍याय) कानपुर के मांडलिया बावजी स्थान पर 22 कड़ाह भर कर छठ के अवसर पर खीर बनी और यह गेहूं के दलिए वाली थी।

दूधारणी : बलदेव की पूजा का दुग्‍धपर्व
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– श्रीकृष्‍ण ‘जुगनू’

मेवाड-मालवा में भादौ मास में प्राय शुक्‍ल पक्ष की सप्‍तमी को कई जगह ‘दूधारणी’ पर्व मनाया जाता है। यह पर्व अहीर-गुर्जरों के भारत में प्रसार के काल से ही प्रचलित रहा है और खासकर कृषिजीवी जातियों की बहुलता वाले गांवों में मनाया जाता है।

यद्यपि आज यह देवनारायण की पूजा के साथ जुड गया है, मगर यह बलदेव की पूजा का प्राचीन लोकपर्व है। उस काल का, जबकि बलदेव को संकर्षण कहा जाता था। वे हलधर है, हल कृषि का चिन्‍ह है और कर्षण होने से वे संकर्षण अर्थात हल खींचने वाले कहलाए। मेवाड के नगरी मे मिले ईसापूर्व पहली-दूसरी सदी के अभिलेख में वासुदेव कृष्‍ण से पूर्व संकर्षण का नाम मिलता है।
मेवाड में बलदेव के मंदिर कम ही हैं, पहला नगरी में नारायण वाटिका के रूप में बना और फिर चित्‍तौडगढ जिले में आकोला गांव में 1857 में महाराणा स्‍वरूपसिंह के शासनकाल में बना।

इस पर्व के क्रम में जिन परिवारों में दूधारू पशु होते हैं, उनका दूध निकालकर एकत्रित किया जाता है। प्राय: पंचमी तिथि की संध्‍या और छठ की सुबह का दूध न बेचा जाता है, न ही गटका जाता है बल्कि जमा कर गांव के चौरे पर पहुंचा दिया जाता है। वहीं पर बडे चूल्‍हों पर कडाहे चढाए जाते हैं और खीर बनाई जाती है। पहले तो यह खीर षष्ठितंडुल (साठ दिन में पकने वाले चावल) अथवा सांवा (ऋषिधान्‍य, शाल्‍यान्‍न) की बनाई जाती थी मगर आजकल बाजार में मिलने वाले चावल से तैयार की जाती है।
इस खीर का ही पूरी बस्ती के निवासी पान करते हैं, खासकर बालकों को इस दूध का वितरण किया जाता है। बच्‍चों को माताएं ही नहीं, पिता और पितामह भी मनुहार के साथ पिलाते हैं।

इस पर्व के दिन गायों को बांधा नहीं जाता, बैलों को हांका नहीं जाता। प्राचीन लोकपर्वों की यही विशेषता थी कि उनमें आनुष्‍ठानिक जटिलता नहीं मिलती। उदयुपर के पास कानपुर, गोरेला आदि में यह बहुत उत्‍साह के साथ मनाया जाता है ओर पलाश के पत्‍तों के दोनें बनाकर उनमें खीर का पान किया जाता है। मित्र प्रमोद सोनी ने एक चित्र भेजा तो मैंने यह लिख दिया। प्रमोद को धन्‍यवाद और आपकी खिदमत में मेरी मान्‍यताओं का यह विवेचन।
✍🏻श्रीकृष्‍ण जुगनू – मेवाड का प्रारंभिक इतिहास, तृतीय अध्‍याय

षष्ठी – (मातृका और कार्तिक मास)
भाद्रपदशुक्लाषष्ठी हल-षष्ठी नाम से मनती है, यह तिथि बलराम जी के जन्मदिन से संयुक्त भी मानी गई है, इस दिन महिलायें हल से उत्पन्न अन्न नहीं खाती हैं। इसके ६० दिनों बाद मनाई जाने वाली डाला-छठ भी ऐसा व्रत है जिसमें निराहार रहती हैं। उपज का षष्ठांश राजा ले जाता था , हलषष्ठी एवं डालाछठ ६० दिनों में उत्पन्न होने वाली धान की सस्य से जुड़ा हुआ लगता है, एवं षष्ठांश प्रकृति राजा को दिया जाने वाला कर।
चातुर्मास के व्रतों में प्राजापत्यादि व्रत में अन्तिम ३ दिन निराहार रहकर व्रत का निर्देश पुराणों में प्राप्त है। डालाछठ में भी ३ दिनों का व्रत उन्हीं व्रतों का संक्षिप्त रूप ही है।
( इस टिप्पणी के प्रत्युत्तर में नेपालदेशनिवासी श्री उद्धब भट्टराई अपनी स्मृति लिखते हैं कि –
जी बिल्कुल सत्य तथ्य आधारित है।मुझे याद है पहले हमारे यहां साठ़ी प्रजाति के धान की चावल से ही आज की शाम भोग में प्रयोग होनेवाली रसीआव रोटी वाली गुड़ प्रयुक्त खीर और उसी साठ़ी चावल
के आटे से ही “डाला छठ”पूजा के लिये शुद्ध देशी घी में ठेकूवा प्रसाद तैयार किया जाता रहा।

मेरे मित्र ‘ Nirdesh K. Singh ‘ ने कुछ समय पूर्व ‘राष्ट्रीय संग्रहालय’ में रखी तथाकथित ‘विष्णु’ प्रतिमा को देखा, और जैसा कि उस प्रतिमा के बारे में संग्रहालय ने जानकारी दी, उस जानकारी को हम सभी तक पहुंचाया . इस प्रतिमा के बारे में बताया गया कि यह ‘विष्णु’ की प्रतिमा है जो ‘मेहरौली’ से प्राप्त हुई और ‘गहड्वाल काल’ की है… बहुत बहुत शुक्रिया निर्देश भाई … आपकी वजह से हमको बहुत सी नयी बातें पता चलती हैं ..

लेकिन , मुझे जानकर अचम्भा हुआ कि ‘गहड्वाल’ तो कभी दिल्ली के शासक नहीं रहे फिर सोचा कि हो सकता है, प्रतिमा कन्नौज में रही हो और समय के साथ दिल्ली आ पहुंची हो … परन्तु उत्सुकता के कारण मैं अपने आप को रोक नहीं सका और इस शनिवार को मैं भी ‘राष्ट्रीय संग्रहालय’ पहुँच गया और प्रतिमा पर लिखे ‘लेख’ को सावधानी से समझने की कोशिश की कुछ छायांकन भी किया साथ ही जब विद्वानों की पुस्तकों को मेहरौली की इस प्रतिमा के परिपेक्ष्य खंगाला तो जो हाथ लगा वो इस प्रकार से है ..

सन 1958-59 के दौरान भारतीय पुरातत्व विभाग को क़ुतुब मीनार के दक्षिण पूर्व में सतह से कुछ नीचे ‘संकर्षण’ की प्रतिमा मिली जिस के पैरों के नीचे ‘नागिरी’ लिपि में संस्कृत का एक लेख उत्कीर्ण है . लेख के अनुसार इस प्रतिमा को विक्रम सम्वत 1204 तदानुसार 1147 ईस्वी में माघ सुदी नवमी दिन शुक्रवार को रोहितका (रोहतक) के व्यापारी गोविंद पुत्र …. ने प्रतिअर्पित किया था। जिस स्थान पर यह प्रतिमा मिली उसके समीप ही पत्थर के चबूतरे पर ‘पंचरथ’ मन्दिर की बाह्य योजना अंकित थी। इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि उस ‘पंचरथ’ मंदिर में संभवतः यह प्रतिमा स्थापित रही होगी।

‘संकर्षण’ बलराम को कहा जाता है कि ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों से ही ‘बलराम’ को भारतीय धार्मिक कार्यों में स्थान मिलना शुरू हो गया था। ‘पांचरात्र’ के ‘चतुर्व्यूह’ सिद्धांत में वसुदेव और देवकी पुत्र ‘कृष्ण’ के सम्बन्धियों का जिनमे ‘बलराम संकर्षण’ भी आते हैं का बहुत महत्व है. इस सिद्धांत के अनुसार वासुदेव ‘कृष्ण’ से ‘संकर्षण’ (जीव) की उतपत्ति होती है, ‘संकर्षण’ से ‘प्रद्युम्न’ (मन) की उत्पत्ति होती है। धीरे धीरे परिवर्ती काल में ‘विष्णु’ के चौबीस प्रमुख रूपों में ‘संकर्षण’ को भी एक रूप माना गया है. ‘संकर्षण’ की शक्ति को ‘लक्ष्मी’ कहा जाता है।

संकर्षण की चतुर्भुजी प्रतिमा के लक्षण इस प्रकार है।
१. मुख्य बायीं भुजा – चक्र
२. पार्श्व बायीं भुजा – पद्म (कमल)
३. मुख्य दायीं भुजा – गदा
४. पार्श्व दायीं भुजा – शंख

‘महरौली’ में मिली प्रतिमा पूरी तरह से इन लक्षणों से युक्त है। मेहरौली की इस प्रतिमा में न केवल विष्णु के दस अवतार यथा मत्स्य, कूर्म , वराह , नृसिंह , वामन , परशुराम , राम , कृष्ण , बुद्ध और घोड़े पर बैठे हुए कल्कि शामिल हैं बल्कि ‘संकर्षण’ के बायीं और ‘शिव’ और दायीं और ‘ब्रह्मा’ जी भी विराजमान है। इस प्रतिमा का आधार ‘सप्तरथ’ आकार का है।

तो कहा जा सकता है कि है कि ईसा की बारहवीं सदी तक अन्य देवी देवताओं के साथ ‘संकर्षण’ की आराधना भी महत्वपूर्ण हो गयी थी . इसीलिए तो ‘रोहतक’ का व्यापारी ‘गोविन्द’ सन 1147 ईस्वी में दिल्ली के तोमर राजा ‘विजयपालदेव’ (1130-1151) के समय में कुतुबमीनार के समीप पंचरथ मंदिर में ‘संकर्षण’ की प्रतिमा स्थापित करता है। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि ‘रोहितका’ अथवा ‘रोहतक’ भी उस समय का एक प्रमुख स्थान रहा होगा।

इस प्रतिमा का कन्नौज के गहड्वालों से कुछ लेना देना नहीं है, और ना ही कभी गहड्वालों ने दिल्ली पर शासन किया । हाँ , इतना अवश्य है कि जिस समय ‘रोहितका’ का व्यापारी ‘गोविन्द’ दिल्ली में यह प्रतिमा समर्पित कर रहा था उस समय कन्नौज पर ‘गोविन्दचन्द्र गहड्वाल’ शासन कर रहा था …. और यह मात्र संयोग है।

✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू और अत्रि विक्रमार्क जी की पोस्टों से संग्रहित

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