हमारी शिक्षा और व्यवस्था 25 – राजीव रंजन प्रसाद

पूरब का ब्रम्हाण्ड, पश्चिम का बिगबैंग और भूतों वाली फिल्म

[हमारी शिक्षा और व्यवस्था, आलेख – 25]
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दुष्यंत कुमार ने लिखा – “एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो” और हम पत्थर लिये पिल पडे। आसमान में तो सूराख नहीं हुआ, दो चार सर अवश्य फट गये हैं। कथनाशय यह है कि शब्दार्थ और भावार्थ के मध्य जमीन और आसमान का अंतर है और यही प्राचीन ज्ञान के प्रति समझ विकसित करने का प्राथमिक सूत्र है। प्राचीन का विषय उठा है तो ज्ञान होना चाहिये कि क्या आर्यभट्ट के इस राष्ट्र भारत के पास सृष्टि और इसकी उत्पत्ति की कोई मौलिक अवधारणा पहले से समुपस्थित थी? इस विषय पर गहरे उतरने से पूर्व यह भी समझना चाहिये कि ब्राम्हाण्ड की उत्पत्ति से संदर्भित बिग-बैंग थ्योरी जिसे आज कमोबेश सर्वत्र मान्यता प्राप्त है, से पहले, क्या समझ विकसित थी।

बाईबल सेवन डे थ्योरी प्रदान करती है अर्थात परमेश्वर ने सात दिन में सृष्टि का निर्माण किया। आरम्भिक छः दिनों में परमेश्वथर ने ब्रह्माण्ड और पृथ्वी (दिन 1), आकाश और वायुमण्डल (दिन 2), सूखी भूमि और सभी पौधे के जीवन (3 दिन), सितारों, सूरज और चन्द्रमा सहित अनेक निकायों का गठन किया (दिन 4), पक्षियों और जल जीवों (5 दिन), और सभी जानवरों और मनुष्य (दिन 6) में रचना की, सातवे दिन ईश्वर ने विश्राम किया। लगभग समानता पूर्वक सात दिवस में सृष्टि के निर्माण की बात कुरान भी सामने रखता है – अल्ल्जी खलकस्समावाति वल्अर्ज व मा बैनहुमा फी सित्तति अय्यामिन् सुम्मस्तवा अलल्अर्शि अर्रह्मानु फस्अल् बिही खबीरन् (आयत 59)। मध्यकाल के कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी कृति अखरावट में सृष्टि की कहानी को कविता में बदला है। उनके अनुसार – “गगन हुता नहिं महि दुती, हुते चंद्र नहिं सूर। ऐसइ अंधकूप महं स्पत मुहम्मद नूर” अर्थात जब आसमान, धरती, सूर्य, चंद्रमा आदि कुछ भी नहीं थे तब शून्य में पैगम्बर मोहम्मद की ज्योति उत्पन्न हुई। सृष्टि की उत्पत्ति को ले कर वन्दनीय गुरुनानक के विचार उपनिषदों के उल्लेखों से साम्यता रखते हैं। वे कहते हैं कि परमात्मा ने अपने आप, बिना किसी की सहायता के सृष्टि रची। उनकी रचनाओं में अनेक उल्लेख है कि परमात्मा ही स्वयं सृष्टि के रूप में परिवर्तित हुआ है। गुरुनानक के अनुसार सृष्टिरचना का समय अनिश्चित है। एकदम ही नवीन अवधारणा बौद्ध धर्म में पायी जाती है, बौद्ध संसार की उत्पत्ति तथा प्रलय की अवधारणा को नहीं मानते। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार संसार में वस्तु उत्पन्न तथा नष्ट होती रहती है, जीवों के जन्म मरण का प्रवाद चलता रहता है परंतु समग्र संसार की न तो उत्पत्ति होती है, न ही विनाश। जैन शस्त्रों के अनुसार ब्रह्माण्ड का मूल क्रम अनन्त (आत्मा) से महत, महत से अन्धकार, अन्धकार से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि,अग्नि से जल, जल से पृथ्वी तथा पृथ्वी से जीवन है।

आधुनिक निष्कर्षों पर पहुँचने से पहले विज्ञान ने अपनी पूर्ववर्ती शोध-अवधारणों में ब्रम्हाण्ड को ले कर कपोलकल्पनाओं का जम कर सहारा लिया, सिद्ध करने की दिशा तो इक्कीसवी सदी में जा कर आंशिक रूप से पकडी गयी है। अरस्तु ने जिस ब्रम्हाण्ड की कल्पना की उसके केंद्र में धरती थी। पृथ्वी अपनी धुरी पर सूर्य के इर्दगिर्द घूमती रहती है, यह मॉडल कॉपरनिक्स की देन माना जाता है। एक समय अल्बर्ट आईंस्टाईन मानते थे कि ब्रह्मांड स्थिर, शाश्वत एवं सीमित है तथा सदैव ऐसा ही रहेगा। वर्ष 1922 में रूस के वैज्ञानिक एलेक्जेंडर फ्रीडमैन ने ब्रम्हाण्ड का सिकुडना, फैलना और गतिशील होना सिद्ध किया। अंतरिक्ष में कौन किसके केन्द्र में अथवा किसके इर्दगिर्द जैसी परिकल्पनाओं को अमेरिकी वैज्ञानिक ऍडविन पावल हबल ने सार्थक दिशा तब प्रदान की जबकि उन्होंने आकाशगंगा सहित अनेक अन्य गैलेक्सियाँ खोज निकालीं। अब बात यह कि मुर्गी तो तलाश ली गयी लेकिन अंडे का पता लगाना शेष था।

कई कल्पनाओं ने अपने घोडे दौडाये। बीसवी सदी में प्रतिपादित ब्रम्हाण्ड की उत्पत्ति के सम्बंध में कुछ चर्चित वैज्ञानिक मान्यताओं में स्थायी अवस्था सिद्धांत (Steady State Theory) प्रमुख है। इस सिद्धांत को ब्रह्माण्ड विज्ञानी फ्रेड हॉयल, अंग्रेज गणितज्ञ हरमान बांडी और अमेरिकी वैज्ञानिक थोमस गोल्ड के साथ संयुक्त रूप से सामने रखा था। सिद्धांत के अनुसार ब्रह्माण्ड का कोई आदि है और न ही अंत, न ही यह समयानुसार परिवर्तित होता है। ब्रह्माण्ड के घनत्व को स्थिर रखने के लिए इसमें पदार्थ स्वत: रूप से सृजित होता रहता है। रोचक बात हैं कि हॉयल, बांडी और गोल्ड ने भूतों पर आधारित एक फिल्म से प्रेरित होकर स्थायी अवस्था सिद्धांत को प्रतिपादित किया था। कालांतर में इस सिद्धांत के एक प्रतिपादक फ्रेड हॉयल के साथ मिलकर भारतीय वैज्ञानिक जयंत नार्लेकर ने हॉयल-नार्लीकर गुरुत्व सिद्धान्त (Hoyle–Narlikar theory of gravity) का प्रतिपादन किया जिसके अनुसार ब्रह्माण्ड का एक अर्ध-स्थायी अवस्था मॉडल (quasi steady state model) है। अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ. एलन संडेज ने दोलायमान ब्रह्मांड सिद्धांत (Oscillating Universe theory) को सामने रखा जिसके अनुसार ब्रह्मांड करोड़ों वर्षों के अंतराल में विस्तृत और संकुचित होता रहता है। अनुमानत: एक सौ बीस करोड़ वर्ष पहले एक तीव्र विस्फोट हुआ था जिसके पश्चात से ब्रह्मांड फैलता जा रहा है। लगभग दो सौ नब्बे करोड़ वर्ष बाद गुरुत्वाकर्षण बल के कारण इसका विस्तार रुक जाएगा और फिर ब्रह्मांड संकुचित होने लगेगा तथा अनंत रूप से बिंदुमय आकार धारण कर लेगा। उसके बाद एक बार पुनः विस्फोट होगा तथा यह क्रम चलता रहेगा। ब्रम्हाण्ड की उत्पति का वर्तमान में सर्वमान्य सिद्धांत है बिगबैंग थ्योरी जिसे बेल्जियम के खगोलज्ञ पादरी जार्ज लैमेन्टर ने 1960-70 ई. में सामने रखा था। उनके अनुसार, लगभग 15 अरब वर्ष पूर्व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक परमाण्विक इकाई के रूप में था। उसमें अचानक एक महाविस्फोट ( Big Bang ) हुआ जिससे सामान्य पदार्थों का निर्माण आरम्भ हुआ और अत्यधिक ऊर्जा का उत्सर्जन हुआ। महाविस्फोट के पश्चात् ही विभिन्न ब्रह्माण्डीय पिण्डों, तथा आकाशगंगाओं का सृजन हुआ। इसी प्रक्रिया से कालांतर में ग्रहों का निर्माण भी हुआ। महाविस्फोट के मात्र 1.43 सेकंड के बाद भौतिकी के नियम लागू होने लग गए थे। बिग बैंग ब्रह्मांड सिद्धांत की मूलभूत आलोचना यह है कि यह प्रारंभिक स्थिति की व्याख्या नहीं करता, तथापि ब्रह्मांड के सामान्य विकास की तार्किक व्याख्या अवश्य प्रस्तुत करता है।

जो कुछ आज विज्ञान है उसके विषय में भारतीय प्राचीन वैज्ञानिक क्या दृष्टि रखते थे? श्याम बेनेगल ने अपने चर्चित धारावाहिक भारत एक खोज में सृष्टि निर्माण सम्बंधी ऋग्वेद के कतिपय श्लोकों का अनुवाद कर प्रस्तुत किया था। कुछ पंक्तियाँ उसी अनुवाद से इस सम्बन्ध में अवश्य पठनीय है। ऋग्वेद के अनुसार – सृष्टि से पहले सत् नहीं था/ असत् भी नहीं/ अंतरिक्ष भी नहीं/ आकाश भी नहीं था। छिपा था क्या, कहां/ किसने ढका था। उस पल तो अगम, अतल
जल भी कहां था। नहीं थी मृत्यु/ थी अमरता भी नहीं। नहीं था दिन, रात भी नहीं/
हवा भी नहीं। सांस थी स्वयमेव फिर भी/ नहीं था कोई, कुछ भी/ परमतत्व से अलग, या परे भी। इस सूक्त की गहरी विवेचना करते हुए हमें ऋग्वेद का ही एक और श्लोक संज्ञान में लेना चाहिये जो कहता है – “हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेकासीत्। स दाधारं पृथ्वीं ध्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम्” अर्थात ”वह था हिरण्यगर्भ, सृष्टि से पहले विद्यमान/ वहीं तो सारे भूत जात का स्वामी महान/ जो हैं अस्तित्वमान, धरती- आसमान धारण कर/ ऐसे किस देवता की उपासना करें हम हवि देकर”। हिरण्यगर्भ की तुलना आधुनिक नेबुला (Nebula) से करते हुए ऋग्वेद के कुछ अन्य श्लोकों को बिग-बैंग थ्योरी के आलोक में देखने का यत्न करें। ऋग्वेद में ही उल्लेख है – “तम आसीत्तमसा गूलहमग्रेअप्रकेतम सलिलम सर्वमाइदम। तुच्छयेनाभ्वापिहितम यदासीत त्पस्तन्महिनाजायतैकम” अर्थात उस सर्वत्र व्यापक अंधकार में एक तरल पदार्थ सर्वत्र (परमाणविक इकाई), अतिसूक्ष्म उपस्थित था। तभी वहाँ महान, महिमावान, चलायमान करने वाला परमात्मा समुपस्थित (ऊर्जा का उत्सर्जन) हुआ। इसके पश्चात की घटना के लिये यह श्लोक देखें कि “यदक्रंद: प्रथमं जायमान उद्यंत्समुद्रादुत वा पुरीषात्। श्येनस्य पक्षा करिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं ते अर्वन” अर्थात आदि में उत्पन्न हुआ वह (ऊर्जा) अपने अनादि कारणों से और उपर उठता हुआ फैल गया। घोर शब्द करता हुआ वह बाज की बाहों और हिरण की टांगे के वेग (गति) से फैल गया (महाविस्फोट अथवा Big-Bang)।

यह ठीक है कि अमेरिकी वैज्ञानिक ऍडविन पावल हबल ने गैलेक्सी आदि की खोज की परंतु जो पाया क्या वही विवरण श्रामद्भाग्वतगीता के उन प्रसंगों में नहीं प्राप्त होता है जब कृष्ण अर्जुन को अपने विराटरूप का अवलोकन कराते हैं। क्या वे विवरण हजारो गैलेक्सी यहाँ तक कि अनगिनत सूर्यों की समुपस्थिति नहीं बताते? इस दिशा में कुछ परवर्ती भारतीय शोध की ओर भी देखना आवश्यक है। जो बहुत बाद में सिद्ध हुआ उसे कितना पहले कह दिया गया था उदाहरण के लिये सूर्य के कारण ही दिन और रात हैं, इस लोक में प्रतिदिन जो सूरज का उगना और अस्त होना दिखाई पडता है वह वास्तविक नहीं है (स दा एष न कदाचनास्तमेति नोदेति) अथवा सूर्य के कारण ही ऋतुओ का बदलना होता है, वही समस्त भुवनों का आधार है (तास्मिन्न्र्पितं भुवनानि विश्वा), सूर्य अपनी आकर्षण शक्ति से पृथ्वी आदि क्रहों को अपनी कक्षा में चलाता है, उन्हें गिरने नहीं देता (सविचा यंत्रै: पृथ्वीमरम्णादस्कम्भने सविता धामदहतु। अश्वविवाधुक्षध्दुनिमंतरिक्षमतूर्ते बद्धम सविता समुद्रम)। सूर्य पृथ्वी की पूर्व दिशा को धारण करता है अर्थात पृथ्वी अपने केंद्र पर पूर्व की ओर गति करती है। पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण है, मिट्टी का ढेला उपर फेंकने पर आवश्यक रूप से नीचे की ओर ही आयेगा (लोष्ठ: क्षिप्तो बाहुवेगं गत्वा नैव तिर्यग्गच्छति। नोर्ध्वमारोहति पृथ्य्वी विकार: पृथ्वीमेव गच्छति)। अन्य ग्रहों से आकृष्ट होने के कारण पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती रहती है (पंचमहाभूतमयस्तारा गुणपंजरे महीगोल:। स्वेयस्कांतांत: स्थो लोह इवावस्थितो वृत:)। चंद्रमा के आकर्षण से ज्वार-भाटा उत्पन्न होता है (स्थलिस्थमाग्नि संयोगादुद्रेकि सलिलं यथा तथेंद्रु वृद्धो सलिलं भोधिकुरुसतम)। सूरज की रोशनी के कारण चंद्रमा प्रकाशित होता है (सूर्यरश्मिचंद्रमा गंधर्व:)।

हम यूरोप के ज्ञान से ही ब्रम्हाण्ड को जानते समझते आये है। परिस्थिति यह है कि प्राचीन शास्त्रों में लिखे हुए सिद्धांत जो बाद में जा कर सिद्ध भी हुए उन्हें न मान्यता मिली न ही हमारी शिक्षण संस्थाओं ने तवज्जो दी। बच्चा पढता है गेलेलियो, या कि कॉपरनिकस उसे अरस्तु और प्लेटो भी पढा दिया जाता है लेकिन बहुत धीरे से जहर पिलाया जाता है कि वैदिक साहित्य मिथक हैं, आर्यभट्ट और वाराहमिहिर में कुछ नहीं रखा धरा। भूतिया फिल्मों से प्रेरित हो कर पश्चिम, ब्रम्हाण्ड कैसे बना इसपर थ्योरी दे देता है लेकिन हमारे लिये तो सारी लिखित संहिताये ही त्याज्य हो गयी हैं। सच्चाई यह है कि पश्चिम का ज्ञान पूरब तक पहुँचे और पढाया जाये यह समय की मांग है लेकिन पूरब के ज्ञान को बुला दिया जाये यह एक सोचा समझा षडयंत्र है। [अगली कड़ी में जारी……..]

जीवन का क्रमिक विकास और बंदर की संतानें?
[हमारी शिक्षा और व्यवस्था, आलेख – 26]
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ऊँट को अभिमान था अपनी ऊँचाई का, जब तक वह पहाड़ के नीचे नहीं आया। विज्ञान का लगभग प्रत्येक पक्ष भारतीय शास्त्र-शोध के हिमालय का हिस्सा है, यद्यपि हम स्वयं एक प्रसुप्त ज्वालामुखी जैसे हो गये हैं। हमे अपने भीतर की आग का ही पता नहीं तो जाहिर है कि हर आँधी-तूफान भारी-भरकम प्रतीत होगा। षडयंत्र पूर्वक अपनी ही ज्ञान संपदा से अंग्रेजो ने विमुख किया और हम खुशी खुशी ऐसे वैज्ञानिक हो गये, जिनके सोच-समझ का बीज इतिहास के मध्यकाल में जा कर पड़ा था। ब्रम्हाण्ड की उत्पत्ति से आरम्भ कर धरती पर जीवन कैसे आया इसके लिये प्राय: संकल्पनाओं का सहारा ही लिया गया है। बहुधा धार्मिक पुस्तकें इस समझ को विकसित करने का आधार बनी अथवा स्वतंत्र सोच के प्रतिपादन में अवरोधक, तथापि डारविन के विकासवाद को जीवजगत की उत्पत्ति, स्थापना और विस्तार के लिये प्रामाणिक माना जाता है। भारत के पास भी अपनी विकासवादी अवधारणा समुपस्थित थी, यद्यपि डारविन के अनुरूप नहीं तथापि आज की अनेकानेक मान्यताओं को उसके आलोक में पारिभाषित अवश्य किया जा सकता है। प्राचीन विज्ञान के तथ्यों व तर्कों पर विमर्श से पूर्व मॉडर्न साईंस की समझ का सार सार जानने का यत्न करते हैं जिससे कि तुलनात्मक अध्ययन में सुविधा हो सके।

विज्ञान ने सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया का जो सरलीकरण किया है उसके अनुसार कहा जा सकता है कि ब्रम्हतत्व अथवा ईश्वरीय पदार्थ ने अज्ञात कारणों से स्वयं का विस्तार करना प्रारंभ किया और एक महाविस्फोट के साथ अनन्त आकाश गंगायें जिनमे अनंत तारे, अनन्त ग्रह, अनन्त उपग्रह और अनंत आसमान उत्पन्न हो गये। इन्ही अनगिनत आकाशगंगाओं के बीच थी एक आकाश गंगा और उसके भीतर एक भटकती-घूमती हुई आवारा नीहारिका भी थी। नीहारिका अर्थात विभिन्न पदार्थों का एक बादल। इस आवारा नीहारिका में उपस्थित पदार्थों के बीच परस्पर आकर्षण उत्पन्न हुआ जिसे विज्ञान ने गुरुत्वाकर्षण नाम दिया और सृष्टि की रचना प्रक्रिया में सूर्य केन्द्रीभूत अवस्था में उपस्थित हो गया जिसके चारो ओर ग्रहों ने परिक्रमायें प्रारंभ कर दीं। इसी सूर्य की परिक्रमा करता तीसरा ग्रह बनी हमारी पृथ्वी। 4.6 बीलियन वर्ष पहले पृथ्वी अस्तित्व में आयी। गर्म-खौलती हुई चट्टानों का एक पिंड थी हमारी पृथ्वी जो धीरे धीरे शीतल होने लगी। वातावरण में उपलब्ध जलवाष्प तरल हो कर महासागरों का हिस्सा बन गये। यह तरल वास्तव में गर्मागर्म सूप की तरह था जिसमे मीथेन, फार्मेल्डिहाइड, अमोनिया, साइनाइड, हाइड्रोजन सल्फाइड और हाइड्रोकार्बन सम्मिलित था। बहुत सी रासायनिक प्रक्रियायें हुई फिर हाईड्रोजन और ऑक्सीजन गैसों के मिलने से जल की उत्पत्ति हुई। इन्हीं समयों में चारो ओर सागर और उसके मध्य में उभर आयी ठोस सतह। कहते हैं जल के साथ ही जीवन की संभावनायें उभरीं। जल में मौजूद कई तत्वों, एमीनो एसिड आदि आदि के सम्मिलन से अद्भुत चमत्कार हुआ और एक ऐसी कोशिका निर्मित हो गयी जिसमे हरकत थी, जो अपना आकार बढ़ा सकती थी, जो स्वयं को विभाजित कर दूसरा जीवन उत्पन्न करने में सक्षम थी, जिसे अपने अस्तित्व को बचाने का अर्थ पता था और जिसे भोजन की तलाश थी। इस कोशिका को धरती पहला जीवन कहा जा सकता है। वह एक कोशिका इस धरती की वास्तविक मूल निवासी थी जिसके विभाजन से कई कोशिकायें बनी और इस तरह से यह एक जीवन अनेक जीवन में बदलता गया।

एक महाविस्फोट जिसे कि विज्ञान बिग बैंग थ्योरी (विस्तार के लिये मेरा पिछला आलेख देखें) कहता है इसी सम्बंध में प्राचीन ग्रंथों से उपलब्ध ज्ञान का संक्षेपीकरण करें तो – “ॐ तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः” अर्थात महाप्रस्फुटन से ॐ का नाद उत्पन्न हुआ और इसी से से पञ्च तत्वों की उत्पति हुई, जिसमे सर्वप्रथम था आकाश; “आकाशाद्वायुः” अर्थात आकाश से वायु की उत्पत्ति हुई; “वायोरग्निः” अर्थात वायु से अग्नि उत्पन्न हुई; “अग्नेरापः” अर्थात अग्नि से जल की उत्पत्ति हुई; “अद्भ्यः पृथिवी” अर्थात जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई; “पृथिव्या ओषधयः” अर्थात पृथ्वी पर औषधियाँ/पादप उत्पन्न हुए; “औषधीभ्योऽन्नम्” अर्थात इन औषधियों से फिर अन्न प्राप्त हुए; “अन्नाद्रेत:” अर्थात अन्न से वीर्य प्राप्त हुआ; “रेतस: पुरुषः” वीर्य से पुरुष उत्पन्न हुए ( तैत्तिरीय उपनिषद्)। अन्य उदाहरण भी देखें कि – स श्रांतस्तेपान: फेनमसृजात अर्थात प्राथमिक जीवन को प्रजापति ने फेन से उत्पन्न किया (शतपथ ब्राम्हण)। अथवा स श्रांतस्तेपानो मृदं शुष्का-पयूष सिक्तं शर्कराम अश्मानम अयो हिरण्यम औषधि वनस्पति असृजत्। तेनेमाम पृथ्वी प्राच्चादयत। ता वा एता नव सृष्टय: अर्थात प्रजापति ने मृद, शुष्कायम, ऊषा, सिकेता, शर्करा, अश्मा, अय: तथा हिरण्य और औषधि उत्पन्न की और इससे पृथ्वी ढक गयी। ये नौ सृष्टियाँ हैं। जल से बाहर जो धरती का समग्र टुकडा था वह बिलकुल नग्न था, कालांतर में उसमें वनस्पतियाँ उत्पन्न हुईं – ऋक्षा ह वा इयमग्र आसीत। तस्या देवा रोहिण्या वीरुघोअरोहन अर्थात लोमरहित धरा पर रोहिणी ने लतायें लगायीं।

आधुनिक विज्ञान मानता है कि जीवन की उत्पत्ति के साथ ही धरती पर उपस्थित साम्य स्थितियाँ बदलने लगी थीं क्योंकि वातावरण का सहयोग पा कर एक कोशिका वाला जीवन बहुकोशिकाओं के जीवन में बदलने लगा। कोमल शरीर वाले जीव और फूल रहित पौधों की उत्पत्ति से जैवविविधता आकार लेने लगी और वह धरती की इकलौती कोशिका अब कई रंग और कई आकार में अवतरित होने लगी थी। वह कैम्ब्रियन युग कहलाता है जब बिना रीढ़ की हड्डी वाले जीवों की उत्पत्ति हुई। सिल्युरियन काल में मछलियों का धरती पर अवतरण हुआ जब कि इन समयों में बिना रीढ़ वाले प्राणी विलुप्त होने लगे। अब धरती पर पौधे भी पनपने लगे थे। डिवोनियन काल में वे जीव उत्पन्न हुए जो धरती पर भी रह सकते थे और पानी में भी, इन्हें एम्फीबियन कहा गया। अगला समय था मैसोजोईक युग का जुरेसिक काल जब डायनोसिरोस धरती पर आये। लाखों वर्षों तक उन्होंने अपना वर्चस्व धरती पर बनाये रखा। आपसी संघर्ष और किसी उल्कापिंड के टकराने के फलस्वरूप इन विशालकाय डायनासिरोसों का अंत हो गया। टरशियरी काल में स्तनधारी जीवों का धरती पर प्रादुर्भाव हुआ। बन्दर, चमगादड़, घोड़े, ह्वेल मछलियाँ आदि ने धरती को विविधतायें प्रदान कीं। विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधों और फलदार वृक्षों का अब बाहुल्य हो गया था। इसके पश्चात टरशियरी काल के अंतिम चरण में मनुष्य इस धरती पर आये।

शास्त्रों में उल्लेखित काव्यात्मक व्याख्यायें भी मनुष्य की उत्पत्ति का लगभग ऐसा ही संकेत देती हैं। पहले समानताओं का अवलोकन करें कि जल से जीवन उत्पन्न हुआ यह तथ्य माना गया। जीवन जैसे जैसे परिष्कृत होने लगा उसने जलचरों की उत्पत्ति का रास्ता साफ किया। व्याख्यायें इसे विष्णु के धरती पर पहले पदार्पण अथवा मत्स्यावतार के रूप में जानती हैं। विज्ञान की खोजों के साथ कदम मिलाते हुए भारतीय व्याख्या भी यह मानती है कि जलचरों के पश्चात उभयचरों का धरती पर प्रादुर्भाव हुआ। इसका सांकेतिक तर्क विष्णु के द्वितीय अवतार अर्थात कूर्मावतार (कछुआ) हैं, कछुआ एक उभयचर प्राणी है। अगली आमद धरती पर स्तनपायी जीवों की थी और प्राचीन व्याख्यायें कहती हैं कि विष्णु का तृतीय अवतार है – वराहावतार (जंगली सुअर)। मनुष्य अनायास ही धरती पर अवतरित नहीं हुए अपितु पशु के मनुष्य बनने की प्रक्रिया अनेक जीवों के सृजन-परिवर्तन से हो कर गुजरी है। इस सम्मिश्रण का उदाहरण विष्णु के चतुर्थ अवतार थे जो कि आधा मानव और आधा सिंह कहे गये हैं अर्थात नृसिंहावतार। अब मानव धरती पर आए। विष्णु के अन्य अवतारों की कथा में से कवितातत्वों का लेपन छुड़ा कर देखा जाये तो मानव सभ्यता के विभिन्न चरणों को समझा जा सकता है। कहते हैं कि अफ्रीका में कहीं पड़ा था मनुष्य का पहला कदम और तब मानव पिग्मी या छोटे कद के थे। इसे विष्णु के पाँचवे अवतार के रूप में समझा जा सकता है जिसे कि वामनावतार कहा गया। इस अवतार का आकार केवल बावन अंगुल का माना गया है। मनुष्य ने प्रगति करना प्रारंभ किया और अपनी सुरक्षा के लिये उसने अस्त्र शस्त्र का निर्माण करना प्रारंभ किया। फरसा मनुष्य के आरंभिक शस्त्रों में से एक माना जाता है तथा विष्णु के छठे अवतार परशुराम इसी शस्त्र के कारण पहचाने गये हैं। बदलते समाज ने अपनी स्थापनायें और मर्यादायें गढ़ीं जिसके प्रतीक विष्णु के सातवे अवतार मर्यादापुरुषोत्तम राम कहे जाते हैं। मनुष्य ने अनेको कलाओं और निपुणताओं को प्राप्त किया और उन विलक्षणताओं के प्रतीक रूप में कृष्ण अवतरित हुए, विष्णु के आठवे अवतार। भावार्थों को ग्रहण किया जाये तो काव्य शास्त्रों में प्रस्तुत भारतीय ज्ञान की श्रंखलायें अपने बिम्बों के माध्यम से बहुत कुछ कहना चाहती हैं जिसे उनके शब्दार्थों के आधार पर कपोल कल्पित माना गया है।

विज्ञान तथा पुरा-भारतीय शास्त्र एक मत से कहते हैं कि विन्दु विस्तारित हो कर विशालकाय ब्रम्हांड बन गया और धरती पर एक जीवन का उद्भव हुआ जिसके पश्चात धीरे धीरे सुन्दरतम जीव-जगत का प्रादुर्भाव हुआ। तथापि डारविन के विकासवादी सिद्धांत को ले कर भारतीय मान्यताओं मे समुचित विभेद पाया जाता है। भारतीय शास्त्र के आलोक में डारविन के विकासवाद का अध्ययन करने पर प्रथम जीव में जीवन कैसे आया जैसे प्रश्न स्वत: उत्पन्न हो जाते हैं जिसकी तार्किक व्याख्या उपलब्ध नहीं है। प्राचीन शास्त्र प्राणियों की उत्पत्ति की क्रमिकता को तो वैसा ही बताते हैं जैसा आधुनिक विज्ञान की व्याख्या है परंतु जीवों के एक से दूसरे में बदलने को मान्य नहीं करते अथवा बंदर से ही मनुष्य बना को अस्वीकार कर देते हैं। शास्त्रों के अनुसार अमीबा, वनस्पतियों, जलचरो, पक्षियों, भूचरों अथवा मनुष्य .जो भी जीव उत्पन्न हुआ वह अपनी परिस्थितियों-परिवेश के अनुरूप पूर्णत: पृथक हुआ है। भारतीय दृष्टि से सृष्टि चार प्रकार की होती है – अण्डज, पिण्डज, उद्भिज और स्वेदज। हर प्रकार की सृष्टि का निर्माण और विकास उसके अपने अपने जातीय बीजों में विभिन्न अणुओं के क्रम और उनके स्वत: स्वभाव के अनुसार होता है। एक प्रकार की सृष्टि का दूसरे प्रकार की सृष्टि में कोई दखल नहीं होता। शास्त्र मानते हैं कि कीट से कीट, पक्षी से पक्षी, मानव से मानव और मनुष्य से मनुष्य की उत्पत्ति ही सम्भव है। एक जाति के बीजों में विभिन्न अणुओं का एक निश्चित क्रम रहता है, यह क्रम बीज के स्वत: स्वभाव से अन्यत्व को प्राप्त नहीं होता।

गुरुदत्त अपनी पुस्तक ‘हमारी सांस्कृतिक धरोहर’ में लिखते हैं – रासायनिक तत्वों के संयोग से शरीर बनता है परंतु रासायनिक तत्व मिल कर प्राणी नहीं बना सकते। इन तत्वों के संयोग में जीवन तत्व के समावेश होने पर ही प्राणी बनता है। हम लोग चूंकि अपने सिद्धांतों को मान्य नहीं करते इस लिये संभव है पश्चिमी वैज्ञानिक डॉ. अगासिज की बात बेहतर समझी जा सके। अपनी पुस्तक प्रिंसिपल्स ऑफ जूलॉजी में वे लिखते हैं कि – पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले, बिना हड्डियों के जंतूओं और मनुष्य आदि हड्डीदार जंतुओं में एक समान ही उन्नति होती देखी जाती है। परंतु इस समानता का अर्थ यह नहीं कि एक प्रकार के प्राणी दूसरे प्रकार के प्राणी से उत्पन्न हुए हैं। आदिमकालीन मत्स्य ही सर्पणशील प्राणियों के पूर्वज नहीं हैं न ही मनुष्य ही अन्य स्तनधारियों के जो कि टरशरी युग में पैदा हुए थे। जब तक कल्पनाशीलता ब्रम्हाण्ड की उत्पत्ति और विकास, जीवन की उत्पत्ति और उनके विस्तार जैसे विषय का आधार रहेगी केवल थ्योरियों पर आधारित हो कर हमारी पीढी को अपनी समझ विकसित करनी पडेगी। मेरा प्रश्न यह है कि सभी प्रकार की उपलब्ध थ्योरी एक साथ विद्यार्थियों के समक्ष क्यों नहीं रखी जाती जिससे शोध के लिये अनेक दिशायें उपलब्ध हों? मनुष्य बंदर की संतान है यह डारविन का मानना है लेकिन ऐसा न मानने के भी पर्याप्त आधार हैं।
[अगली कड़ी में जारी……..]

 

साभार
– ✍🏻राजीव रंजन प्रसाद,
सम्पादक, साहित्य शिल्पी ई पत्रिका

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