“कैसा स्वरूप था भारत के सबसे महान प्राचीन शिक्षाकेंद्र नालन्दा का?”
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के ड्राफ्ट में नालन्दा और तक्षशिला का इतस्ततः जिक्र इन केंद्रों के बारे में अधिक जानने की हमारी जिज्ञासा को बढ़ा देता है। आइये जानते है प्राचीन नालन्दा विश्वविद्यालय के गौरवमयी स्वरूप को।
वर्तमान बिहार राज्य में राजगीर से 7 मील उत्तर में स्थित प्राचीन नालंदा विहार किसी समय एक विश्वविख्यात विश्वविद्यालय हुआ करता था। नालंदा ग्राम महावीर तथा बुद्ध दोनों को प्रिय था। जैन धर्मग्रंथों के अनुसार महावीर ने यहां 14 वर्ष वर्षाऋतु में व्यतीत किए थे। स्वयं भगवान बुद्ध ने नालंदा के वन में रहकर कई बार धर्म का उपदेश दिया था। नालंदा बिहार का संस्थापक सम्राट अशोक को कहां जा सकता है किंतु एक शिक्षा संस्था के रूप में नालंदा का उद्भव तीसरी शताब्दी बाद हुआ। सुदूर दक्षिण से नागार्जुन तथा उनके शिष्य आर्यदेव क्रमशः 300 तथा 330 ईसवी के लगभग यहां अध्ययन अध्यापन के निमित्त आए थे। चीनी यात्री फाह्यान ने नालंदा के दर्शन 410 ईसवी में किए। संभवत उस समय यह ब्राह्मण शिक्षा केंद्र होने के कारण फाहियान ने इसके बारे में ज्यादा नहीं लिखा। ह्वेनसांग (629-645) के समय में भारत का सबसे प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र था। ह्वेनसांग के अनुसार नालंदा बिहार की भूमि 500 व्यापारियों ने 10 करोड़ स्वर्ण मुद्राओं के मूल्य पर खरीद कर बुद्ध को समर्पित की थी। गुप्त सम्राटों ने भी नालंदा की समृद्धि में अपना योगदान दिया था।
खंडहरों की खुदाई से स्पष्ट है कि नालंदा विश्वविद्यालय के भवन तथा विश्राम आधार आदि लगभग 1 मील लंबे तथा आधा मील चौड़े एक समतल तथा सुरंग में भूखंड पर स्थित थे कुछ छोटे परिमाण के 300 अलग-अलग कमरे थे जिनमें व्याख्यान दिए जाते थे। परिसर में नीलकमल से शोभायमान तालाब भी थे और चारों तरफ चारदीवारी थी।
नालंदा की शिक्षा सर्वथा नि:शुल्क थी। विद्यार्थियों के भोजन वस्त्र तथा औषधि का प्रबंध भी विश्वविद्यालय की ओर से ही होता था। लगभग 10000 विद्यार्थी यहां पर अध्ययनरत रहते थे। चीन कोरिया तिब्बत मंगोलिया तथा अन्य देशों से परम ज्ञान की प्राप्ति के इच्छुक छात्र यहां आया करते थे। ह्वेनसांग के अनुसार यहां पर द्वार प्रवेश परीक्षा में केवल 20% परीक्षार्थी उत्तीर्ण होते थे उन्हें ही विश्वविद्यालय में प्रवेश की अनुमति मिलती थी।
ह्वेनसांग के समय यहाँ आचार्यों की संख्या 1410 थी। ह्वेनसांग स्वयं यहाँ के 10 श्रेष्ठ आचार्यों में गिने जाते थे। शीलभद्र विश्वविद्यालय के प्रधान थे। यहां केवल बौद्ध साहित्य का ही ज्ञान नहीं दिया जाता था बल्कि हर विषय और दर्शन तथा भौतिक विषयों की जानकारी गहनता से दी जाती थी। नालन्दा को 200 दिए हुए थे। जिससे उसका खर्चा चलता था।
उस समय अध्ययन अध्यापन के 3 तरीके थे प्रथम पुस्तकों से पढ़ना द्वितीय आचार्य के साथ संवाद या प्रश्नोत्तर करना तृतीय शास्त्रार्थ करना। शिक्षक और शिक्षित का पारस्परिक व्यवहार इतना स्निग्ध था कि विश्वविद्यालय के 700 वर्ष के इतिहास में एक भी दृष्टांत ऐसा नहीं मिलता जिसमें छात्रों की ओर से शिक्षकों के प्रति किसी प्रकार की अवज्ञा तथा अवहेलना हुई हो।
विश्वविद्यालय में एक संपन्न सुसज्जित पुस्तकालय था, जिस भाग में पुस्तकालय स्थित था वह धर्मगंज के नाम से प्रसिद्ध था। पुस्तकालय के लिए तीन बड़े भवन अलग-अलग किए हुए थे जो कि रत्नसागर रत्नोदधि तथा रत्नरंजक के नाम से विख्यात थे और ये 9 मंजिल के थे। तीनों पुस्तकालयों में नौ लाख पुस्तकें थी। आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय में आग लगा दी उसका पुस्तकालय छह माह तक चलता रहा।
डरपोक, मूर्ख व धूर्थ हिन्दु देखते रहे, लेकिन आग नही बुझाई।
उपयुक्त स्रोत के अभाव में उस महान शिक्षा व्यवस्था के बारे में हम कम ही जान पाये है लेकिन नई शिक्षा व्यवस्था में इन शिक्षा केंद्रों का कुछ अंश भी आ गया तो कल्याण है।