उपनिषद के महावाक्यों में से एक जिस “तत्वमसि” का आपने अक्सर सुना होगा वो आरुणी नाम के गुरु से उनके शिष्य (पुत्र) श्वेतकेतु की वार्ता है। इन्हीं आरुणी को उद्दालक आरुणी के नाम से भी जाना जाता है। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार उन्होंने उपनिषदों को श्रृंखलाबद्ध करने पर काम किया था। हरमन जकोबी और रैनडल कॉलिंस उनकी तुलना थेल्स ऑफ़ मिलेटस(Thales of Miletus) से करते हैं। संस्कृत को देवनागरी में लिखकर पढ़ने और रोमन ट्रांसलिटरेशन में पढ़ने पर यहाँ भी फर्क दिख जाएगा। औद्दालकी का मतलब जहाँ पौत्र (पोता) होगा, वहीँ उद्दालकी का मतलब पुत्र हो जाता है। बृहदारण्यक, छान्दोग्योपनिषद्, कौषीतकि और कठोपनिषद, सबमें उनका नाम होने से विदेशी विद्वानों के लिए उद्दालक आरुणी एक ही व्यक्ति, या अलग अलग लोगों का नाम है ये भी एक बड़ा विषय रहा है।
उपनिषदों के यही आरुणी महाभारत में शिष्य के रूप में हैं। महाभारत जिन गुरु शिष्यों की कहानी पर शुरू होती है, आरुणी उनमें से एक थे। गुरुकुल में रहने वाले आरुणी के गुरु धौम्य ने इन्हें आश्रम के खेतों की देखभाल जिम्मेदारी भी दे रखी थी। एक दिन जंगल से लकड़ी लेकर लौटते हुए घने बादल घिर आये और तेज बारिश की संभावना देखकर आरुणी दौड़कर खेतों की मेंढ़ देखने पहुंचे। तेज बारिश से मेंढ़ बहने की सी स्थिति में थी और उसे बचाने की लाख कोशिशों के बाद भी आरुणी उसे टूटने से रोक नहीं पाए। कहीं खेत तेज बहाव में बहते तो गुरु की देखभाल की आज्ञा का उल्लंघन होता इसलिए आरुणी मेंढ़ पर खुद ही लेट गए। भीगते हुए आरुणी मेंढ़ पर, पानी रोके लेटे रहे, और रात हो चली तो धौम्य ने सोचा आरुणी खेतों से वापस नहीं आया ? जब वो और अन्य शिष्य आरुणी को ढूंढते पहुंचे तो उन्हें खेत का पानी रोकते पाया। उद्दालक का एक अर्थ खेत की मेंढ़ से उठाया गया भी होता है, आरुणी का नाम इसी कारण गुरु ने उद्दालक भी रख दिया।
आगे चलकर जो विख्यात अष्टावक्र हुए वो आरुणी के वंशज थे। आरुणी के अलावा भी धौम्य के और शिष्य थे जो खासे प्रसिद्ध हुए। ऐसे एक दुसरे शिष्य थे उपमन्यु। महाभारत के आदि पर्व का ये हिस्सा गुरु शिष्य परंपरा के अलावा समय का विभाग देखने के लिए भी पढ़ा जा सकता है। उस काल में समय कैसे प्रहार, घटी, दिन-रात और मास आदि में विभक्त था, अश्विनीकुमार की उपासना के समय वो भी वर्णन में आता है। बाद के समय के कई लोगों ने अपनी मर्जी से समय के विभाजन की पद्दतियों और काल गणना की भारतीय परम्पराओं का यथासंभव मजाक उड़ाने की कोशिश भी की है। किस्मत से संस्कृत भाषा और उसे जानने वाले आक्रमणकारियों के हिंसक तरीकों से पूरी तरह से ख़त्म नहीं हुए। गुरु शिष्य परंपरा में एक पीढ़ी आगे बढ़ते बढ़ते ये अब तक चले आये हैं। आयातित विचारधारा (Colonial Mindset) के मनोविकार से ग्रसित लोगों को निस्संदेह इस से बड़ी दिक्कत होती होगी। अब की पीढ़ी जब फिर से अपनी जड़ों को तलाशने में उन्हीं किताबों को खुद पढ़ने पर तुली है, जिसका मनचाहा अर्थ का अनर्थ करने में उन्होंने बरसों लगाये तो उन्हें वो Fundamentalist या कट्टरपंथी घोषित करके अलग थलग करने की कोशिश भी करते हैं। ये भी कोलोनियल माइंडसेट के लोगों द्वारा छुआछूत फैलाने का एक उदाहरण है।
गुरु धौम्य के ही तीसरे शिष्य थे वेद जो कि सीधे-सादे, जरा कम चतुर जीव थे। वो बहुत तेजी से सीख नहीं पाते थे तो उन्हें गुरु ने बैल की तरह काम में लगाए रहते। भारी बोझा ढोना, दिन रात आश्रम की सेवा में होने के बाद भी वेद काम में जुटे रहते। उनके सेवा भाव से प्रसन्न होकर गुरु धौम्य ने उन्हें भी बुद्धि में सभी शास्त्र स्वतः स्फुरित हो जाने का वरदान दिया। आगे चलकर जब वेद गुरु हुए तो वो जानते थे इस तरह सेवा करना बड़े कष्ट का काम है, इसलिए वो अपने शिष्यों को ऐसी सेवा में जुटे रहने नहीं कहते हे। अब जो पी.एच.डी. के गाइड या ज्यादातर जगह शिक्षक होते हैं वो गुरु नहीं होते, इसलिए वो ऐसी चीज़ें याद भी नहीं रखते। जब वेद के एक शिष्य उत्तंक की शिक्षा पूरी हुई तो उसने भी गुरुदक्षिणा देने की इच्छा जताई। वेद ने कहा सोचकर बताता हूँ, तुम थोड़ा ठहरो। कई बार पूछे जाने पर भी बेचारे सीधे-सादे वेद ये तय नहीं कर पाए कि गुरुदक्षिना में आखिर क्या माँगा जाए ? आखिर उन्होंने उत्तंक को गुरुपत्नी से पूछ लेने कहा।
वेद उस समय जनमेजय और पौष्य नाम वाले दो क्षत्रियों के पुरोहित थे। गुरुपत्नी ने कहा कि उत्तंक पौष्य की पत्नी के दिव्य कुंडल मांग लाये। रास्ते में उत्तंक को एक बैल पर बैठा लम्बा चौड़ा देव मिला जिसने उन्हें गोबर खा लेने की सलाह दी। जब उत्तंक यात्रा करके राजा पौष्य के पास पहुंचे तो वो कुंडल देने को तो राजी हो गए मगर उन्होंने कहा कि उत्तंक सीधा अन्तःपुर में जाकर रानी से कुंडल मांग ले। जब उत्तंक वहां पहुंचे तो वहां कोई रानी नहीं दिखी। उत्तंक वापस पौष्य के पास आये और पूछा क्या वो कुंडल नहीं देना चाहते, इसलिए झूठ कह दिया कि रानी वहां है, उनसे मांग लो ? पौष्य ने वापस पूछा क्या उत्तंक शुद्ध होकर गए थे ? आदि पर्व के तीसरे अध्याय का ये हिस्सा शौच और शुचिता पर भी है। जब उत्तंक ने बताया कि उन्होंने गोबर खाकर खड़े-खड़े आचमन किया था तो उन्हें ढंग से आचमन करने की आज्ञा हुई। जब साफ़ सुथरे उत्तंक वापस गए तो इस बार उन्हें रानी नजर आने लगी। रानी ने कुंडल दिए और साथ ही सावधान किया कि तक्षक इन्हें काफी समय से चुराना चाहता है। जाते समय जब उत्तंक ने राजा से आज्ञा ली तो राजा ने उन्हें खाने पर आमंत्रित किया।
जब खाना आया तो उसमें एक बाल था और वो ठंडा था तो उत्तंक ने कहा आप मुझे अपवित्र खाना खिलाना चाहते हैं। राजा पौष्य ने कहा ऐसा नहीं है और उसने अच्छा भोजन मंगवाया है। बहस बढ़ गई और दोनों ने एक दुसरे को शाप दिया। जहाँ उत्तंक ने राजा को भविष्य में अँधा हो जाने का शाप दिया, वहीँ राजा ने उत्तंक को निस्संतान होने का। जब विवाद थमा और जांच हुई तो खाने में सचमुच बाल था अब राजा लगे माफ़ी मांगने। उत्तंक ने तो अपना शाप थोड़े समय में समाप्त हो जाने का काल तय कर दिया, मगर राजा शाप वापस लेने में असमर्थ थे। उत्तंक ने समझाया कि जिस आरोप के सत्य होने की स्थिति में राजा ने शाप दिया था, वो झूठ था, आधा वाक्य झूठ होने के कारण शाप लागू ही नहीं हुआ होगा। अब जब उत्तंक लौटने लगे तो भेष बदले तक्षक उनसे कुंडल चुरा कर एक बिल में जा घुसा। पहले तो लकड़ी से बिल खोदते उत्तंक की मदद के लिए इंद्र ने अपना वज्र भेजा, फिर यात्रा की शुरुआत में जिस देव ने उत्तंक को गोबर खिलाया था उसने फिर से आकर उनकी मदद की।
जैसे तैसे कुंडल वापस लेकर उत्तंक गुरु पत्नी के पास भी उसी देव की मदद से पहुंचे। जब सारी कहानी उन्होंने गुरु को बताई तो मदद करने वाले देव के इंद्र होने और समय के चक्र के बारे में भी उत्तंक को शिक्षा मिली। गुरुदक्षिणा दे चुके उत्तंक अब भी तक्षक से नाराज ही थे। उस से बदला लेने का विचार मन में लिए हुए ही वो हस्तिनापुर की ओर रवाना हुए थे। महाभारत के अनुक्रमाणिका पर्व के, यानि बिलकुल शुरूआती हिस्से की ये कहानियां लोमहर्षण के पुत्र सूतनन्दन उग्रश्रवा सुना रहे होते हैं। यानी कहानी पहले ही फ़्लैशबेक में जा चुकी होती है। महाभारत पढ़ने पर आप लगातार समय में आगे और पीछे आ-जा रहे होते हैं क्योंकि भृगु वंश के जो ऋषि ये कहानी एक दुसरे से मिलने पर सुना रहे होते हैं, या जो घटनाओं के समय वहां मौजूद हैं वो सब अलग अलग काल में होते हैं। कोई अपने शिक्षा या गुरुदक्षिना के लिए किये सफ़र की कहानी सुना रहा होता है तो कोई एक गुरु की आज्ञा पर किसी दुसरे ज्ञानी से मिलने जा रहा होता है। अभी की शिक्षा व्यवस्था एक ही जगह, ख़ास तौर पर किसी बड़े शहर में जमे रहने और दूसरों से कुछ ना सीखने पर जैसा जोर देती है वैसी परंपरा इस काल में नहीं दिखती।
शायद ऐसी अड़ियल व्यवस्था के ना होने और एक दुसरे से सुनते सीखते रहने के ही कारण महाभारत आकार में विशाल भी हुई और इतने वर्षों से जीवित भी है। गुरुओं की तुलना में अभी के शिक्षक कुछ भी नहीं सिखाते ये तो अभी के शिक्षक खुद भी मान ही लेंगे। मेरे ख़याल से दोष उनका भी नहीं है। जो खुद ही कुछ जानता-सीखता नहीं, ना ही सिखाने में उसकी कोई रूचि है वो कुछ सिखाएगा भी कैसे?
पुरानी सी कहावत “बूढ़ा तोता राम-राम नहीं रटता” कई अलग रूपों में भारत में प्रचलित है।
जैसे मैथिलि में इसके लिए “सियान कुकुर पोस नै मानै छै” कहा जाता है, जिसका मतलब होता है कि कुत्ता बड़ा हो जाए तो उसे पालतू नहीं बनाया जा सकता।
ये कहावत भी हिन्दुओं की मूर्खता करने और कर के फिर उसी पर अड़े रहने की विकट क्षमता दर्शाती है।
बचपन से ही सिखाना होगा ये जानने के बाद भी ज्यादातर #सनातनी_परंपरा के लोग अपने धर्म के बारे में अपने बच्चों को कुछ भी सिखाने का प्रयास नहीं करते!
शायद उन्हें लगता होगा कि इस काम के लिए कोई पड़ोसी आएगा, ये उनकी जिम्मेदारी नहीं है।
ऐसी ही वजहों से अगर आज किसी ऐसे आदमी से, जो गर्व से खुद को सनातनी कहता हो, उस से पूछ लें कि अगली पीढ़ी को अपने धर्म के बारे में बताने के लिए आपके घर में कौन सी किताबें हैं?
तो वो बगलें झाँकने लगेगा।
नौकरी-काम के सिलसिले में आप चौबीस घंटे बच्चे के लिए उपलब्ध नहीं हैं, दादी-नानी भी दूर कहीं रहती हैं, तो आपको तो सिखाने के लिए किताबें या कुछ घर में रखनी चाहिए थीं।
इतने प्रश्न बहुत सरल भाषा में, मधुर वाणी में और मुस्कुराते हुए ही पूछियेगा क्योंकि इतने सवालों पर आपको सनातनी मूर्खता के बचाव में विकट तर्क सुनाई देने लगेंगे।
वो बताएगा कॉमिक्स पढ़कर बच्चे बिगड़ जाते हैं, महंगी भी होती हैं इसलिए अमर चित्र कथा उसने नहीं ली है।
वो ये भी बताएगा कि पञ्चतंत्र के नाम में ही तंत्र है, उसका ऐसी चीज़ों पर विश्वास नहीं, फिर पुराने जमाने कि इस किताब से आज के बच्चे क्या सीखेंगे?
इसलिए वो पंचतंत्र जैसी किताबें भी नहीं लाया।
आपको तो पता ही है कि भगवद्गीता पढ़कर पड़ोस के कितने ही लोग साधू हो गए हैं! दस-बीस ऐसे लोग जो पहले पन्ने से आखरी पन्ने तक भगवद्गीता पड़कर साधू हुए हैं, ऐसे सनातनियों को कौन नहीं पहचानता?
रोज ही दिख जाते हैं, इसलिए वो भगवद्गीता भी घर में नहीं रखता।
महाभारत घर में रखने से झगड़े होते हैं, रामायण कहाँ ढूंढें पता ही नहीं, कोई चम्मच से मुंह में डाल देता, मेरा मतलब पढ़ा देता तो सीख कर एहसान भी कर देते।
अब बच्चों कि किताबों में रूचि भी नहीं रही, कोई किताबें नहीं पढ़ता।
ऐसे तमाम तर्क सुनने के बाद आप आक्रमणकारियों की सनातनी से तुलना कर के देखिये।
डेविड बर्रेट और जेम्स रीप के “Seven Hundred plans to Evangelize the world; the rise of a Global Evangilization movement” के मुताबिक चर्च के पास 1989 में 41 लाख पूर्णकालिक थे जो आत्माओं की फसल काटते थे।
Soul Harvesting करते थे, आपका शराफत वाला “धर्म-परिवर्तन” मासूम सा शब्द है।
उनके पास 13,000 बड़े पुस्तकालय थे, 22,000 पत्रिकाएँ छापी जाती थी और 1800 इसाई रेडियो/टीवी चैनल भी वो चला रहे थे।
पिछले तीस साल में ये गिनती कितनी बढ़ी होगी ये सोचने में जितना समय लगे उतने में उसी स्रोत से ये भी बता दें कि उस वक्त 400 मिशन एजेंसी थी जो आत्मा जब्त करने का काम करती थी।
इन आत्मा जब्ती के संस्थानों में 262300 आत्मा के लुटेरे मिशनरी थे और ये 8 बिलियन डॉलर के करीब के खर्च से चलने वाला काम था।
सिर्फ आत्मा-खसोट पर साल भर में 10000 किताबें और लेख आते हैं। ये सब प्रत्यक्ष हो ऐसा जरूरी नहीं, जातिवाद को उभारने, असंतोष भड़काने के लिए जो लेख लिखवाए उसे भी इसमें जोड़िएगा।
जब ये कर चुके हों तो फिर से बता दें कि ये जानकारी तीस साल पुरानी है। इस नव वर्ष पर, नवरात्रि के दौरान, अगर आप एक दो किताबें भी घर नहीं लाये हैं, कुछ पढ़ने कि कोशिश भी नहीं की है तो अगली पीढ़ी तक क्या होगा, उसका अंदाजा तो आप लगा ही सकते हैं।
पूरे देश में लागू होने वाले धर्म-परिवर्तन पर नजर रखने लायक कानून तो बने नहीं हैं, जबकि संवैधानिक तौर पर ये केंद्र सरकार का ही विषय है, ये शायद आपने नहीं सोचा होगा।
ध्यान रहे कि इनका निशाना अक्सर गरीब-पिछड़ा तबका होता है तो ये आपके घर काम करने वाली के मोहल्ले में पहले आयेंगे।
सोचिये, सोचना चाहिए!
✍🏼 आनन्द कुमार जी की पोस्टों से साभार