मेरा गाँव मेरी धरोहर – डॉ नीलम

*मेरा गाँव मेरी धरोहर*

पक्की सड़क से उतर
खेतों की मेड़ मेड़ चलकर
मिट्टी की पगडंडी पर
उतर आता है मेरा गाँव

है धरोहर आज भी वो
के उसमें हैं अभी कुछ
छोटी सी मुंडेर वाले
कच्चे-पक्के माटी के घर

कुछ है साँझे आँगन
जहाँ उतरती सीढ़ियां से
कमली,राजी,निम्मी,सीता
उतर आती हैं रूई लेकर

चलती चरखे की लूम
चला,गीतों में अपनी
अपनी गाथा कहतीं
या हंसी-ठिठोली करतीं

लगी नहीं शहरी हवा उसे अभी
ना ही पानी में हुई मिलावट है
तभी साँझे चूल्हे से उठती
रोटी की मीठी महक आज भी

कहीं मटर,धनिया,मूँली की
कहीं सरस सरसराती है
कभी धान उगलते खेत हैं
कहीं सोना उगलती भूमि है

अमराई की छाँव में
आज भी मांचे बिछते हैं
बच्चे,बड़े,भाई,बीबीयों को
मिलता वहाँ बुजुर्गों का आशीष है

नहरें निर्मल नीर लिए
बीच गाँव में बहती हैं
पावन पानी के कलकल में
बचपन चहक-चहक नहाता है

सबसे सुंदर,सबसे पावन
गुरु का है यहाँ द्वार है
सुबह-शाम जहाँ पीठ लगा
होती अरदास और अजान है

छोटा सा दवाखाना है
एक तरफ,दूजी ओर
शिक्षा का मंदिर भी है
जहाँ बिना भेदभाव के
मिलता ज्ञान है

कुछ मिट्टी के खण्डहर भी हैं
भूली-बिसरी यादों से
जिसकी माटी में बसी हुई हैं
खट्टी -मीठी यादें

मेरी यादों में आज भी
मेरा गाँव सजीव है
उसकी धड़कन में बहती है
मेरी कितनी यादें

आज भी मेरा गाँव मेरी धरोहर है
हर बार सहेजा हूँ उसको मैं
हर बार खयालों में है मेरे।

डा.नीलम

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