जनरल परवेज मुशर्रफ को देशद्रोह के अपराध में सजा-ए-मौत हो गई। यह अनहोनी है। क्यों है ? क्योंकि आज तक किसी पाकिस्तान की अदालत की यह हिम्मत नहीं हुई कि वह अपने किसी फौजी तानाशाह को देशद्रोही कहे और उसे मौत के घाट उतारने की हिम्मत करे।
जनरल अयूब खान , जनरल याह्या खान और जनरल जिया-उल-हक ने जब तख्ता-पलट किया तो पाकिस्तान की न्यायपालिका ने उसको यह कहकर उचित ठहरा दिया कि वह उस समय की मांग थी। मजबूरी थी। उसे ‘डॉक्ट्रीन ऑफ नेसेसिटी’ कहा गया।
लेकिन आप पूछ सकते हैं कि जनरल मुशर्रफ को यह सजा क्यों सुनाई गई ? इसका एक जवाब तो यह है कि वे मूलतः पाकिस्तानी नहीं हैं। वे मुहाजिर हैं। हिंदुस्तानी हैं। दिल्ली में पैदा हुए हैं।
बाकी जनरल पठान और पंजाबी थे। इस दलील में कोई खास दम नहीं है लेकिन मेरी राय है कि जनरल मुशर्रफ के साथ पाकिस्तान के जजों ने अपना बदला निकाला है।
जैसा दंगल पाकिस्तान के जजों और वकीलों के साथ मुशर्रफ का हुआ, वैसा किसी भी राष्ट्रपति के साथ नहीं हुआ। मुशर्रफ को यह सजा 1999 में तख्ता-पलट के लिए नहीं दी गई है
बल्कि 2007 में आपातकाल थोपने के लिए दी गई है। यह वह समय है, जब मुशर्रफ और पाकिस्तान की न्यायपालिका के बीच तलवारें खिंच गई थीं।
मुख्य न्यायाधीश इफ्तिकार मुहम्मद चौधरी को बर्खास्त करने पर राष्ट्रपति मुशर्रफ तुल गए थे। यह घटना भी 2007 की ही है।
उन्होंने पहले सेनापति का पद छोड़ा और फिर 2008 में राष्ट्रपति का पद भी ताकि उन पर महाभियोग न चले। मुशर्रफ आजकल दुबई में रहते हैं।
बहुत बीमार हैं, उन्हें 30 दिन का समय मिला है। वे अपील कर सकते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि पाकिस्तान के वर्तमान राष्ट्रपति उनको क्षमादान दे देंगे। एक तो पाकिस्तान की फौज ने अदालत के इस फैसले पर दो-टूक शब्दों में आपत्ति की है।
दूसरा , इमरान सरकार भी उनके प्रति सहानुभूति दिखाना चाहेगी। फौज और इमरान का आपसी संबंध काफी घनिष्ट है। वे उसके विरुद्ध क्यों जाएंगे ?
तीसरा , नवाज शरीफ इस बात को भूले नहीं है कि तख्ता—पलट के बाद उन्हें जुल्फिकार अली भुट्टो की तरह फांसी नहीं दी गई बल्कि मुशर्रफ ने उन्हें सउदी अरब में शरण लेने दी।
चौथा , पाकिस्तान की जनता यह जानती है कि मुहाजिर होने के बावजूद मुशर्रफ ने हिंदुस्तान की नाक में दम करने की कोई कसर नहीं छोड़ी थी। ऐेसे राष्ट्राध्यक्ष को देशद्रोही कहकर फांसी देना पाकिस्तान का लोकप्रिय कदम नहीं हो सकता।
पांचवां , अदालत ने मुशर्रफ को पूरा मौका नहीं दिया कि वे अपना पक्ष उसके सामने रख सकें। इस फैसले का बस एक ही फायदा है। वह यह कि अब पाक में शायद फौजी तख्ता-पलट बंद हो जाएं।
मैं खुद कहता हूं कि मुशर्रफ को अभी कुछ साल और जिंदा रहना चाहिए। कुछ माह पहले जब दुबई में मेरी उनसे दो घंटे लंबी भेंट हुई तो मैंने पाया कि वह मुशर्रफ का नया अवतार था।
कश्मीर पर पहले अटलजी के साथ और बाद में मनमोहनजी के साथ उनके चार-सूत्री समझौतों को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने बड़ा उत्साह दिखाया।
उन्होंने एक विदेशी प्रधानमंत्री से मेरी बात करवाने की कोशिश भी की। यदि भारत-पाक शांति के मामले को आगे बढ़ाने में वे अपना शेष जीवन लगाएं तो शायद असंभव भी संभव हो जाए।