#घर_की_लापरवाही
मैं जब भी 18 के आसपास के हौसलामंद नौजवानों को नास्तिक होते देखता हूँ तो मुझे बुरा नहीं लगता।
पर मैं जब इन्हें नमाज़, कुरान, वुज़ू, इस्लाम और मुसलमानों की इज़्ज़त करते देखता हूँ तो अच्छा लगता है।
लेकिन जब यही YOUNG GUNS मंदिर में होती आरती का या भगवान की मूरत और उसकी पूजा का मज़ाक बनाते हैं तो दुःख होता है लेकिन टोकना फ़िज़ूल लगता है क्योंकि मुझे इनकी कोई ग़लती नज़र नहीं आती।
वहीं जब मैं किसी मुस्लिम परिवार के पांच साल के बच्चे को भी बाक़ायदा नमाज़ पढ़ते देखता हूँ तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। मुस्लिम परिवारों की ये अच्छी चीज़ है कि वो अपना धर्म और अपने संस्कार अपनी अगली पीढ़ी में ज़रूर देते हैं। कुछ पुचकारकर तो कुछ डराकर, लेकिन उनकी नींव में अपने बेसिक संस्कार गहरे घुसे होते हैं।
यही ख़ूबसूरती सिखों में भी है। एक बार छुटपन में मैंने एक सरदार का जूड़ा पकड़ लिया था। उसने मुझे उसी वक़्त तेज़ आवाज़ में सिर्फ समझाया ही नहीं, धमकाया भी था। तब बुरा लगा था, लेकिन आज याद करता हूँ तो अच्छा लगता है।
हिन्दू धर्म चाहें कितना ही अपने पुराने होने का दावा कर ले, पर इसका प्रभाव अब सिर्फ सरनेम तक सीमित होता जा रहा है। मैं अक्सर देखता हूँ कि मज़ाक में लोग किसी ब्राह्मण की चुटिया खींच देते हैं। वो हँस देता है।
एक माँ आरती कर रही होती है, उसका बेटा जल्दी में प्रसाद छोड़ जाता है, लड़का कूल-डूड है, उसे इतना ज्ञान है कि प्रसाद गैरज़रूरी है।
बेटी इसलिए प्रसाद नहीं खाती कि उसमें कैलोरीज़ ज़्यादा हैं, उसे अपनी फिगर की चिंता है।
छत पर खड़े अंकल जब सूर्य को जल चढ़ाते हैं तो लौंडे हँसते हैं, ‘बुड्ढा कब नीचे जायेगा और कब इसकी बेटी ऊपर आयेगी?’
दो वक़्त पूजा करने वाले को हम सहज ही मान लेते हैं कि साला दो नंबर का पैसा कमाता होगा, इसीलिए इतना अंधविश्वास करता है। ‘राम-राम जपना, पराया माल अपना’ ये तो फिल्मों में भी सुना है।
इसपर माँ टालती हैं ‘अरे आज की जेनरेशन है जी, क्या कह सकते हैं, मॉडर्न बन रहे हैं।’
पिताजी खीज के बचते हैं ‘ये तो हैं ही ऐसे, इनके मुँह कौन लगे’
नतीजतन बच्चों का पूजा के वक़्त हाज़िर होना मात्र दीपावली तक सीमित रह जाता है।
यही बच्चे जब अपने हमउम्रों को हर शनिवार गुरुद्वारे में मत्था टेकते या हर शुक्रवार विधिवत नमाज़ पढ़ते या हर सन्डे चर्च में मोमबत्ती जलाते देखते हैं तो बहुत फेसिनेट होते हैं। सोचते हैं ये है असली गॉड, मम्मी तो यूंही थाली घुमाती रहती थी। अब क्योंकि धर्म बदलना तो पॉसिबल नहीं, इसलिए मन ही मन खुद को नास्तिक मान लेते हैं।
शायद हिन्दू अच्छे से प्रोमोट नहीं कर पाए। शायद उन्हें कभी ज़रूरत नहीं महसूस हुई। शायद आपसी वर्णों की मारामारी में रीतिरिवाज और पूजा पाठ ‘झेलना’ सौदा बन गया
वर्ना…
सूरज को जल चढ़ाना सुबह जल्दी उठने की वजह ले आता है। सुबह पूजा करना नहाने का बहाना बन जाता है और मंदिर घर में रखा हो तो घर साफ सुथरा रखने का कारण बना रहता है। घण्टी बजने से जो ध्वनि होती है वो मन शांत करने में मदद करती है तो आरती गाने से कॉन्फिडेंस लेवल बढ़ता है। हनुमान चालीसा तो डर को भगाने और शक्ती संचार करने के लिए सर्वोत्तम है।
सुबह टीका लगा लो तो ललाट चमक उठता है। प्रसाद में मीठा खाना तो शुभ होता है भई, टीवी में एड नहीं देखते?
संस्कार घर से शुरु होते हैं। जब घर के बड़े ही आपको अपने संस्कारों के बारे में नहीं समझाते तो आप इधर-उधर भटकते ही हैं जो की बुरा नहीं, भटकना भी ज़रूरी है। लेकिन इस भटकन में जब आपको कोई कुछ ग़लत समझा जाता हैं तो आप भूल जाते हो कि आप उस शिवलिंग का मज़ाक बना रहे हो जिसपर आपकी माँ हर सोमवार जल चढ़ाती है।
लेकिन मैं किसी को बदल नहीं सकता। मैं किसी के ऊपर कुछ थोपना नहीं चाहता। मैं सिर्फ अपना घर देख सकता हूँ।
मुझे गर्व है कि मुझे आज भी हनुमान चालीसा कंठस्त है। शिव स्तुति मैं रोज़ करता हूँ। सूरज को जल चढ़ाना मेरे लिए ओल्ड फैशन नहीं हुआ है। दुनिया मॉडर्न है इसलिए भजन यूट्यूब पर सुन लेते हैं। श्रीकृष्ण को अपनाआइडल मानता हूँ। मुझे यकीन है कि ये सब मेरी आने वाली जेनेरेशन मुझसे ज़रूर सीखेगी।
मैं गुरुद्वारे भी जाता हूँ। चर्च भी गया हूँ। कभी किसी धर्म का मज़ाक नहीं उड़ाया है, हर धर्म के रीतिरिवाज़ पर मैं तार्किक बहस कर सकता हूँ लेकिन किसी को भी इतनी छूट नहीं देता हूँ कि मेरे सामने शिवलिंग का मज़ाक बनाये।
कम से कम मेरे लिए तो सनातनी होना कोई शर्म की बात नहीं रही। आपके लिए हो भी तो मज़ाक न बनाएं, चाहें जिसकी आराधना करें लेकिन मूर्तियों को धिक्कारें नही।
बाकी आपकी राय आमंत्रित है।