रंजन गोगोई को राज्य सभा में नामित करना, सिद्ध करता है कि मोदी सरकार सिर्फ योग्यता पर ध्यान देती है।

रंजन गोगोई को राज्य सभा में नामित करना साबित करता है कि मोदी सरकार सिर्फ योग्यता पर ध्यान देती है, व्यक्ति के राजनीतिक रुझान पर नहीं। कांग्रेसी मुख्यमंत्री के बेटे गोगोई ने अपने साथ सुप्रीम कोर्ट के तीन अन्य जजों को लेकर मोदी सरकार के खिलाफ प्रेस कांफ्रेंस की थी।

यही नहीं, राहुल गांधी को अवमानना मामले में तीन बार चिट्ठी लिखने का मौका देकर और फिर चेतावनी देकर छोड़ दिया था। ऐसे व्यक्ति को मोदी सरकार द्वारा सम्मान देना सामान्यतः बात नहीं है। मोदी के अलावा कोई दूसरा प्रधानमंत्री होता तो गोगोई का रिटायरमेंट गुमनामी में खो जाता। विश्वास ना हो तो आजाद भारत का इतिहास पलट डालिए।

अगर सरकार को फेवरेबल जज को ही भेजना होता तो वो पूर्व CJI दीपक मिश्र पर दांव लगाती जिनके विरोध में जस्टिस गोगोई समेत 3 और जजों ने न्यायिक इतिहास में पहली बार प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी।

लेकिन सरकार ने पूर्व CJI गोगोई को भेजकर राज्यसभा में अपना पक्ष मजबूती से रखने के साथ कुछ अहम बिल सदन के पटल पर रखने से पहले ही बढ़त हासिल कर ली है।

याद रखिये जब तक अरुण जेटली सदन में थे वो कानूनी मामलों में सरकार का पक्ष न सिर्फ बेहतरीन तरीके से रखते थे बल्कि साथ ही साथ विपक्ष के सारे सवालों का जवाब देकर उन्हें निरूत्तर भी कर देते थे। आज के समय कहने को तो रविशंकर प्रसाद कानून मंत्री है लेकिन शायद ही किसी को उनकी कानून को लेकर कोई बहस याद हो।

इस लिहाज से अब सदन में जब जस्टिस गोगोई NPR, CAA और NRC जैसी बहसों में बोलेंगे या सरकार का पक्ष रखेंगे तब वो जिस स्पष्टता से इन कानूनों के पक्ष में तर्क रखेंगे तो पहली बात वो सदन में सरकार को मजबूती देगा साथ ही सदन की कार्यवाही के द्वारा आम जनता को भी विषय की पूरी और सटीक जानकारी होगी।

यहाँ ये भी याद रखिये की देश मे सबसे पहले असम में NRC लागू करवाने वाले भी जस्टिस गोगोई ही है और जो खुद 2013 से इससे जुड़े हुए है। असम में SC की निगरानी और गाइडलाइंस में ही NRC लागू हुआ है तो सदन में इनसे बेहतर इस विषय पर कोई भी जवाब नही दे सकता।

इसके साथ इस तरह सरकार जब ये मुद्दा क्लीयर हो जाएगा तब धीरे धीरे NRC पर व्याप्त झूठी धारणाओं को धीरे धीरे खत्म करके पूरे देश मे NRC का मार्ग प्रशस्त कर सकेगी।

यही हाल समान नागरिक संहिता का भी है। इनके CJI रहते और उसके पहले भी एक आध पर एपेक्स कोर्ट से सरकार को इस पर कदम उठाने को कहा गया था। ऐसे में कांग्रेस और विपक्षी एक बार फिर संसद को न चलने देंगे और देश को अस्थिर करने की पूरी कोशिश करेंगे। तो इसके लिए पहले ही कांग्रेस के हर सवाल का जवाब सदन के पटल पर सरकार द्वारा मजबूती से देने से बाद में सदन के बाहर होने वाली किसी अप्रिय घटना पर पहले से ही सरकार तैयार रहेगी।

बाकी ये कोई पहले CJI नही है जिन्हें सरकार ने रिटायमेंट के बाद राज्यसभा में भेजा हो। इसके पहले ही पहले कार्यकाल में bjp ने पूर्व CJI को केरल का राज्यपाल बनाया था तो वही कांग्रेस ने पूर्व CJI और जजों को रिटायरमेंट के बाद अहम पद सौंपे जाने की लंबी परिपाटी रही है। और वहाँ ये भी साफ साफ देखा जा सकता है कि इसका मुख्य कारण उनकी कांग्रेस के पक्ष में निर्णय देने के साथ शीर्ष नेतृत्व के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहें हैं।

जबकि जस्टिस गोगई के न तो बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के साथ कोई घनिष्ठ सम्बन्ध रहे और न ही इन्होंने सरकार के पक्ष में कोई निर्णय हवा में दे दिया।

रॉफेल में 3-0 से जो निर्णय आया उसमें सारे दस्तावेजों की जांच के साथ वायुसेना के अधिकारियों के साथ मीटिंग अहम थी जिस कारण राष्ट्रीय सुरक्षा के हित को ज्यादा महत्वपूर्ण मान कर निर्णय दिया गया था न कि मोदी सरकार के पक्ष में। इसमें फ्रांस से आये दस्तावेजों ने भी अहम भूमिका निभाई थी।

यहाँ ये भी याद रहे कि उसी दौरान द हिन्दू ने रक्षा मंत्रालय से चोरी किये हुए गोपनीय दस्तावेजों को छापा था जिनका असर विपक्ष के अनुसार केस पर पड़ता। सॉलिसिटर जनरल ने इसे गोपनीयता कानून का हवाला देते हुए साक्ष्य के रूप में न शामिल करने की मांग की थी लेकिन CJI के नेतृत्व में ज्यूरी ने उन्हें सुनवाई के दौरान शामिल किया।

अगर ये मोदी सरकार का वाकई पक्ष ले ही रहे होते तो सबसे पहले द हिन्दू के सम्पादक पर कार्यवाही करके उन दस्तावेजों को चुनाव से पहले सुनवाई में न शामिल करते। लेकिन यहाँ पर ज्यूरी ने प्रेस की स्वतंत्रता को महत्व देकर केस में नए मोड़ आने की संभावना को भी जन्म दे दिया था।

बाद में ज्यादातर लोग इन्हें राज्यसभा में भेजने को राम मंदिर में निर्णय से जोड़ कर देख रहे हैं। तो निर्णय तो 5-0 की सर्वसम्मति से और सबूतों, गवाहों और ASI के तथ्यात्मक सबूतों के आधार पर आया था। ऐसा तो था नही की निर्णय 2-2 से आने वाला था और CJI ने अपना मत मन्दिर के पक्ष में देकर निर्णय को 3-2 करवा कर राम मंदिर के पक्ष में निर्णय दिलवाने में महती भूमिका निभाई हो।

बस इनकी इस केस में इसलिए जरूर तारीफ करूँगा की इन्होंने केस की जल्दी सुनवाई के साथ बीच मे सालों से लगते आ रहे अड़ंगो को खत्म करके अंतिम निर्णय सुना दिया। याद रखिये इसके पहले वाले CJI ने जब राम मंदिर केस में तेजी लाई तो उन पर देश के इतिहास में पहली बार विपक्ष द्वारा CJI के ऊपर महाभियोग की प्रक्रिया तक शुरू की गई थी। तो वही इन पर एक इंटर्न महिला के यौन शोषण का आरोप भी लगा लेकिन ये बिना उससे विचलित हुए दशकों से चले आ रहे इस मुद्दे को अंजाम तक लेकर आये। इसके अलावा निर्णय में सिर्फ इनकी भूमिका को लेकर बाकी सारे आरोप निराधार है और कोई भी व्यक्ति कभी भी इन आरोपों को साबित ही नही कर सकता चाहे वो जितना भी बड़ा तुर्रमखां क्यो न हो। बस बात विचारधारा और सामने वाले पर उंगली उठाने की होती है इस कारण सार्वजनिक जीवन मे हर शख्शियत को ऐसे बेबुनियाद आरोपों से दो-चार होना पड़ता रहता है।

वैसे व्यक्तिगत तौर पर मैं न्यायपालिका के किसी व्यक्ति को सरकार में या सरकार द्वारा किसी पद पर मनोनीत करने के समर्थन में नही हूँ । लेकिन जब सामने वाला इस काम मे मास्टर हो तब मैं इस किस्म की नैतिकता की बातों को दरकिनार करना ही उचित समझता हूँ।

हमने तो 2 वोटों के कारण अपनी सरकार गिर जाने दी। कारण वही नैतिकता।

कैश फ़ॉर वोट में सिर्फ नाम आने के कारण आडवाणी जी ने सदन स्वयं त्यागपत्र दे दिया था। कारण वही नैतिकता।

इन सब से वाकई हमे कुछ हासिल हुआ?

वही दूसरी तरह नैतिकता की दुहाई दे रहे लोगों ने जब पूरा संविधान ही ताक पर रखकर इमरजेंसी लगाई थी तब उन्हें नैतिकता की याद न आई?

ऑर्डिनेंस बिल फाड़ देना नैतिकता थी?

प्रधानमंत्री से ऊपर सोनिया गाँधी की सत्ता चलती थी वो नैतिकता थी?

अभिषेक मनु सिंघवी जो कर रहे थे वो नैतिकता थी?

CJI पर अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा के कारण महाभियोग की प्रक्रिया की शुरुआत हुई वो नैतिकता थी?

ये नैतिकता की दुहाई की लिस्ट बहुत लंबी है।

तो नैतिकता के जाल में हम न फंसने वाले हैं और हम उसी भाषा मे जवाब देना पसन्द करते हैं जैसा विपक्ष चाहता है।

SHARE