मानव का व्यवहार गिद्ध से भी भयानक हो सकता है?
ये फोटो तो सबको याद होगा ही। इस चित्र के फोटोग्राफर केविन कार्टर को इस असली फोटोग्राफी के लिये पुलित्जर अवॉर्ड मिला था।
सूडान में भुखमरी के अन्तर्गत एक गिद्ध एक बच्चे के मरने की प्रतिक्षा कर रहा है। इस फोटो को खींचने वाले फोटोग्राफर केविन कार्टर ने आत्महत्या कर ली थी। जानते हो क्यों ? क्योंकि पुलित्जर अवॉर्ड के दौरान किसी ने केविन कार्टर से कहा वहाँ एक नहीं दो गिद्ध थे, जो उस बच्चे के मरने की प्रतिक्षा कर रहे थे। पत्रकार ने कहा नही वहां मैं था और मैंने वहां दूसरा गिद्ध नही देखा था। तब उस व्यक्ति ने कहा कि मैंने यहीं से देख लिया और समझ भी लिया वहां दूसरा गिद्ध भी था। वो दूसरा गिद्ध आप थे। केविन को यह बात बहुत बुरी लगी थी। उस व्यक्ति ने पुन: पीडित स्वर में कहा कि वो दूसरे गिद्ध तुम हो केविन। ……!! उसके बाद केविन कार्टर इतने दुःखी हुए प्रति दिन आत्मग्लानि से भरते गये, अवसादग्रस्त हो गये, अन्त में उन्होंने आत्महत्या कर ली थी।
भारत में भी दो दिन पहले अमानवीय की घटना हुई है। एक महिला छोटे बच्चे को लेकर पैदल यात्रा कर रही है। एक बड़ी बिंदी वाली रिपोर्टर उसके पास आती है और उससे प्रश्न पूछने लगती है। कई घंटों तक बिलखते बच्चे की रिपोर्टिंग करते हुए वह रिपोर्टर उनके साथ चलती है। कुछ मील दूरी तय करने के साथ ही रिपोर्टर से बच्चा बड़ी उम्मीद करने लगता है। उसे मसीहा औऱ दोस्त समझ बैठता है। लेकिन थोड़ी दूर बाद रिपोर्टर अपनी AC गाड़ी में बैठती है और चली जाती है और वह बच्चा उसकी ओर देखता रहता है, देखता रहता है, टकटकी लगाए देखते हुए उसने प्राण त्याग दिए।
क्या इस अमानवीय व्यवहार के लिए ये रिपोर्टर भी केविन कार्टर की तरह आत्मग्लानि महसूस करेगी। क्या यह रिपोर्टर भी आत्महत्या जैसा कदम उठा सकती है। ये तो त्यागपत्र भी नही देगी।
अगर नहीं तो ये दुनियाँ की सबसे बड़ी गिद्ध है। ऐसी पत्रकारिता, क्या हो गया हमारे देश को ? किस तरह के पत्रकार हो गए हैं ? क्या उसके पास उस छोटे बच्चे के लिए सच में कुुुछ नही था। क्या सच मेेंं उस पत्रकार के पास कुछ नहीं था ? गाड़ी में बहुत कुछ था लेकिन वह निकाल कर देने की क्षमता उसमें नहीं थी। वह उन्हीं में शामिल है जो केवल तमाशा दिखाने का पैसा कमाते हैं। जी हां गरीबी का तमाशा बनाते हैं। मृृत्यु का तमाशा। मजदूरों की मजबूरी का तमाशा। इनको ना मजदूरों से मतलब है, ना मजदूरों की पीड़ा से मतलब है, ना मरते लोगों की पीड़ा से मतलब है। इन्हें मतलब है टीआरपी से। कुछ ऐसे तथाकथित पत्रकारों का बहिष्कार होना चाहिए। उनको बिल्कुल समाज से अलग कर देना चाहिए। एसी घटिया पत्रकारिता हमारे किसी काम की नहीं है। वह अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए काम करते हैंं, ना कि गरीबों की गरीबी दिखाने के लिए। ऐसे ही कुछ राजनीतिक दल हैं। ऐसे ही कुछ पार्टियों के नेता हैं। वो केवल दिखावा करते हैं, छलावा करते हैं, उनको ग़रीब से, ग़रीब की ग़रीबी से, गरीब के मरने से, उनकी बीमारी से, किसी को किसी से कोई लेना देना नहीं है। इसलिए ऐसे नेताओं से भी बचना होगा। एसे लोगों से दूर रहने की आवश्यकता है। समाज के ठग है ये। समाज को धोखा देते हैं। नकली टीआरपी की कमाई खाने वाले पत्रकार हमारे समाज में रहने योग्य नहीं हैं। पत्रकारिता के नाम पर कलंक है ये लोग।
गुरुजी भू
विश्व चिन्तक, प्रकृति प्रेमी