गंभीर समस्याओं पर तमाशायी सोच – पार्थसारथि थपलियाल

तरंग न्यूज: नई दिल्ली

गंभीर समस्याओं पर तमाशायी सोच
पार्थसारथि थपलियाल

फ़िल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत मृत्यु प्रकरण से जुड़ी रिया चक्रवर्ती की संदिग्ध भूमिका को भारत के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नें अभियान की तरह चलाकर कुछ ऐसे पन्ने खोल दिये जिसने देश में कानून व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए। चैनलों पर चली धुआंधार तर्क कुतर्क की बहसों ने मुम्बई पुलिस और महाराष्ट्र सरकार की भूमिका को भी संदिग्धता के मुहाने पर खड़ा कर दिया। कंगना राणौत और शिवसेना के प्रवक्ता के मध्य चले वाकयुद्ध ने मानवीय गरिमा को रसातल तक पहुंचा दिया। मीडिया को टेलिविजन रेटिंग पॉइंट बढ़ाने का अच्छा मौका मिला। कोरोना काल मे हुए नुकसान की भरपाई हुयी। कंगना के ऑफिस को बी. एम. सी. द्वारा नुकसान पहुंचाया गया, कंगना और संजय राउत में वाकयुद्ध फिर तमाशा हुआ। उसके बाद की घटनाएं सी. बी. आई.; नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के इर्दगिर्द घूमी और फिर रोज़ नए तमाशे शुरू हुए।
सुशांत राजपूत की मृत्यु को धन कमाने और टी. आर. पी बढ़ाने के लिए तमाशा किया जाता रहा।
हाथोंहाथ हाथरस में एक युवती के साथ हुयी दरिन्दगी के बाद के परिदृश्य ने राजनीति की फसल काटने वालों को और गलाकाट प्रतियोगिता के दंगल में चुनौती देते मीडिया के पहलवानों ने पक्ष, विपक्ष, और कुपक्ष, तर्क, वितर्क और कुतर्क के तमाम बाण अपने तुणीर से चलाए और जो अनावश्यक कोलाहल और टनों के वजन में स्वयं को महिमामंडित करते हुए शब्दाडंबर को उड़ेला उससे सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण भी प्रदूषित हुआ। जबरदस्ती अपने विचार पीड़ित परिवार पर लादकर उकसाने / भड़काने के प्रयास भी किये गए। राजनीति वालों के लिए हाथरस पुनर्जीवन पाने का अमृतरस का एक धाम बन गया जहाँ की यात्रा ने अनेक बहुरूपिये पर्यटकों को अपनी राजनीति चमकाने का अवसर दे दिया। अच्छा होता कि जितने लोग लोकाचार के लिए पीड़ित परिवार से मिलने के नाम पर गए थे प्रत्येक व्यक्ति दो-दो हज़ार भी पीड़ित परिवार को देता तो एक करोड़ से अधिक आर्थिक सहायता हो जाती। यहां सवाल उठाने भी लाज़मी है कि ये दौरे हाथरस में ही क्यों हुए? अन्य स्थानों पर इसी तरह की जो वारदातें हुई थी वहां तो कोई नही गया? ये सारा खेल मीडिया और राजनीति का तमाशा है। यह छद्म है। कपट है। मुम्बई से लेकर हाथरस तक कि घटनाएं बहुत कुछ कह गई हैं। असली मुद्दे पर कोई बात नही करता, न करना चाहता है। हमे भी गप्पें सुनने की आदतें पड चुकी हैं।
बेटियों के साथ समाज मे जहां भी दुर्व्यवहार हो रहा है उस पर हम कानून तो बना देते हैं लेकिन उसकी पालना कौन करेगा। मीडिया, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जो अश्लीलता को बढ़ाता है उस तरफ हमनें अनदेखा किया है। सामाजिक जीवन मे धन लोलुपता ने नैतिकता को बेचकर संबंधों के ताने बाने को भ्रष्ट कर दिया है। किसे कहें और कौन सुने? सुने तो समझे नाहि। बड़े लोग चरित्रवान होंगे, आदर्श स्थापित करेंगे तो दूसरे भी उनका अनुकरण करेंगे। अन्यथा लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की दुहाई देने वाला मीडिया जिस तरह अपने एजेंडा चलाकर तमाशा दिखा रहा है उससे समस्याओं की जलेबी बनेगी और जिस सत्य की अन्वेषणा में न्यायिक व्यवस्था रहती है साक्ष्यों के अभाव में अपराधी बाइज़्ज़त बरी होते रहेंगे और ये तमाशे यूं ही चलते रहेंगे।

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