पगला गए क्या: लोग घृणा करेंगे: पार्थसारथि थपलियाल

पगला गए क्या: लोग नफ़रत करेंगे
पार्थसारथि थपलियाल

चाहे प्रिंट मीडिया हो, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या और कोई, आज के दौर में अगर जांच हो जाय तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हर कोई दुरुपयोग कर रहा है। केवल एक साल भर के इनके मसले देखें तो तीन तलाक उसके बाद जम्मू-कश्मीर और धारा 370, फिर राम मंदिर मामले की सुनवाई और सुप्रीम कोर्ट का फैसला, असम में राष्ट्रीय नागरिकता पंजिका प्रकरण, उसके बाद राष्ट्रीय नागरिकता संशोधन अधिनियम, ट्रम्प की भारत यात्रा, मध्यप्रदेश ने राजनीतिक संघर्ष,भारत में कोरोना, तब्लीगी जमात, दिल्ली दंगे, कानपुर में विकास दुबे कांड और एनकाउंटर, चीन का गलवान घाटी में प्रवेश, संघर्ष, नेपाल द्वारा लिपू लेक काला पानी का मामला और उसके बाद फ़िल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमय मौत, कंगना राणौत के मुखर स्वर, संजय राउत के बिगड़े बोल, कंगना के मणिकर्णिका की तोड़फोड़, बिहार पुलिस ऑफिसर को मुम्बई में क्वारन्टीन, CBI/NCB की एंट्री, रिया चक्रवर्ती और मादक पदार्थ प्रकरण, राजस्थान में सियासी घमासान,और ठन ठन गोपाल ये पूरे साल का लेखा जोखा था सितंबर तक। निकलते निकलते सितंबर फंस गया हाथरस में एक युवती की संदिग्ध मौत ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की झोली में
टेलीविजन रेटिंग पॉइंट का प्रोमोट बटन दाल दिया।
मीडिया का इतना गिरना भी अच्छा नही। लकवा मार गया हो तो भी आदमी खिसक खिसक कर स्वाभिमान से आगे बढ़ता है लेकिन अधिकतर प्राइवेट न्यूज़ चैनल हैं उन्होंने ऊपर लिखे सभी प्रकरणों में दर्शकों को भरमाने के अलावा कुछ नही किया। आप स्वयं देखें ऊपर लिखे समाचार बिंदुओं में किसने क्या भूमिका निभाई गौर करें। तीन तलाक, जम्मू कश्मीर ,धारा 370 में इनकी दैहिक भाषा, शब्दों के बोल, धार्मिक घृणा, नफरत, दुर्भावना, भड़काना, उकसाना तमाम काम वह मीडिया करता रहा जो प्रेस की स्वतंत्रता की बात करता है। जो चौथे स्तंभ की बात न जाने किस मुंह से कहता है। जिन्होंने शब्दोँ की मर्यादा, संस्कृति की मर्यादा को तार तार किया वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं। जो लोग समाचार बताते नही हैं बल्कि बनाते हैं, उन्हें कैसे कहें कि वे निष्पक्ष हैं।
रिया चक्रवर्ती मामले को ऐसे बना दिया कि एक पक्ष उसे पल पल में जेल की सलाखों के पीछे देखना चाहता था तो दूसरा बाहर। बेचारे सुशांत के मामले को उलझाने के अलावा किया ही क्या है?नारकोटिक्स मामले से यह पता चला कि देश का भाग्य दुबई की रेखाओं में है न जाने कौन भाई क्या क्या कर रहा हो? अगर सरकारें भी दुबई के संकेतों पर बन रही हों चल रही हों तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है। अभी हाथरस मामले में कितने पत्रकार और चैनलों की हकीकत सामने आई है यह समाचार चैनल्स के चरित्र पर प्रश्न चिन्ह के अलावा क्या लगा सकता है। लोग सोचते हैं न्यूज़ चैनल हैं, वे कभी नही कहते कि हम व्यवसायी हैं। धंधा ही हमारा धंधा है। बहसों में सांडों को उकसाने जैसे उत्तेजक शब्द ही इनकी पहचान है। संस्कृति को ये बेच खाये हैं भद्र लोग भी वे भाषाएं बोलते हैं जिन्हें सभ्य लोग सुनना भी पसंद नही करते। कई कई तो प्रवक्ताओं/प्रतिभागियों के नाम भी ऐसे पुकारते हैं जैसे घोषित अपराधी हों। एक प्रवक्ता का निधन इसी उत्तेजना का परिणाम था। पगला गए हैं क्या? देश की सभ्यता संस्कृति का कोई मतलब नही क्या? कुछ चैनल तो पत्रकारिता को त्याग कर मोहल्ले की लड़ाई के स्तर तक पहुंच गए हैं। क्या यही है पत्रकारिता? इनका व्यवहार किसी दबंग या माफिया से कम नही। अपने चैनल की टी आर पी के चक्कर में देश मे नफरत न फैलाएं, घृणा न फैलाएं, ऐसी बातें न बोलें जो दरारें पैदा करती हों।असभ्यता न फैलाएं।अभिव्यक्ति की भी मर्यादा होती है। समाज को सावधान होना पड़ेगा। अन्यथा मीडिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश को खंड खंड कर देगा। लगता है इस देश मे सरकारें सिर्फ राजनीति करने के लिए होती हैं। सांस्कृतिक, वैचारिक प्रदूषण को कौन दूर करेगा? यह यक्ष प्रश्न है।
पाठक विचारें अपने मन की बातें लिखें ताकि जनमत लोकतंत्र के पक्ष में हो।

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