इस सप्ताहांत अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रबंध निदेशिका – क्रिस्टीना जॉर्जीवा – का इंटरव्यू पढ़ रहा था। जॉर्जीवा बुल्गारिया की नागरिक है। साम्यवादी बुल्गारिया में बिताए गए बचपन और युवावस्था के समय आर्थिक संकट के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि 70 के दशक में एक जापानी प्रतिनिधिमंडल बुल्गारिया घूमने आया था। तब जॉर्जीवा वहां के एक विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हुआ करती थी। चूंकि जॉर्जीवा और उनके सहयोगियों ने पहले कभी जापानी लोगों को नहीं देखा था तो उन लोगों ने जापानियों का स्वागत-सत्कार भोजन एवं वाइन (मदिरा) से किया। जब जापानियों पर थोड़ा सा नशा चढ़ गया तो उनमें से एक ने भोज समाप्त होने के बाद कहा, ‘आप लोग भाग्यशाली हैं क्योंकि आप लोगों को पता ही नहीं कि आप कितने निर्धन हैं’।
यही फीलिंग मुझे भी हुई थी जब मैं सपरिवार वर्ष 2002 में फ्रांस गया था। एक महीने बाद वहां के एक जिले के प्रिफे (préfet) के साथ ट्रेनिंग पर लगा दिया गया। फ्रांस का प्रिफे भारत के जिलाधिकारी की तरह होता है, लेकिन जिलाधिकारी से भी अधिक शक्तिशाली क्योकि प्रिफे का रोल वहां के संविधान में उल्लिखित है और उनकी ट्रांसफर-पोस्टिंग वहां के राष्ट्रपति करते है। कुछ ही समय में प्रिफे के ऑफिस के सभी कर्मियों से मेरी अच्छी मित्रता हो गयी थी। एक दिन प्रिफे के ड्राइवर (chauffeur) ने सपरिवार हमें अपने घर रात्रि भोज पर आमंत्रित किया जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। (जानकारी के लिए, भारत में भी कार्यालय के किसी सहकर्मी के साथ सपरिवार अंतिम भोजन मैंने अपने ड्राइवर इकरामुद्दीन के घर में किया था; इकरामुद्दीन जी ने हमें सपरिवार आमंत्रित किया था)
ड्राइवर महोदय सायः काल में अपनी निजी कार से लेने आए। जब हमने उनके घर में प्रवेश किया तो वहां की विलासिता देखकर आँखे चुंधिया गयी। उस विलासिता के वर्णन की आवश्यकता नहीं है। फर्नीचर, लकड़ी की टाइल, रसोई के उपकरण, बाथरूम इत्यादि कही भी उस समय के भारत सरकार के सचिव के घर से भी बेहतर थे। उस समय मैं स्वयं भारत सरकार का अधिकारी था; पत्नी भी कमाती थी। तब मुझे पहली बार महसूस हुआ कि हम भारतीय कितने निर्धन थे। एक तरह से हम भाग्यशाली थे क्योंकि हम पता ही नहीं कि हम लोग कितने निर्धन थे।
जॉर्जीवा ने आगे बताया कि पुत्री को पिलाने के लिए दूध लेने के लिए वह चार बजे उठकर लाइन में लगती थी। अगर कभी देरी हो जाती थी तो पुत्री को दूध नहीं मिलता था।
मुझे भी अपनी किशोर एवं युवावस्था का समय याद आ गया। बिजली गायब है, कोई बात नहीं; ट्रेन 12 घंटे लेट, स्वीकार है; सड़क टूटी फटी है; हमारी नियति है; बैंक अकाउंट खोलने में आनाकानी करता है, यह कौन सी बड़ी बात हो गई; उद्यम लगाना है, लोन नहीं मिलेगा, क्योकि हमारा चेहरा ही ऐसा है; गैस सिलेंडर के लिए लाइन लगानी है, चलो लाइन में लगकर गप्प मार लेंगे.
हर समस्या, हर परेशानी के लिए हम अपने दिल को बहला लेते थे. एक तरह से हम भारतीयों की यही नियति होकर रह गई थी.
हम लोगो ने अपने आस-पास होने वाले भ्रष्टाचार को स्वीकार करना सीख लिया था. राजनीतिज्ञों को गाली देते और जिंदगी के संघर्ष में पुनः जुट जाते हैं. उसी गंदी, बदबूदार, भिनभिनाती गलियों, गड्ढो से भरी सड़कों पर चलना और एक-एक पाई के लिए संघर्ष करते रहना.
जबकि अभिजात वर्ग विलासिता पूर्ण जिंदगी जीते, देश विदेश में छुट्टियां मनाते और तो विदेश में बसे अपने परिवार को भी सरकारी खर्चे पर मौज कराते. हम सब देखते और समझते थे, लेकिन बदले में उसी अभिजात वर्ग की सरकार को चुनते रहते.
आज प्रधानमंत्री मोदी ने बताया कि “इतिहास बताता है कि गांव और गरीब को अभाव में रखना कुछ लोगों की राजनीति का आधार रहा है … ऐसे लोगों को लगता है कि अगर गांव, गरीब, किसान, आदिवासी सशक्त हो गए तो उनको कौन पूछेगा, उनकी दुकान नहीं चलेगी, कौन उनके हाथ-पैर पकड़ेगा? कौन उनके सामने आ करके झुकेगा? इसलिए उनका यही रहा कि गांव की समस्याएं बनी की बनी रहें, लोगों की समस्याएं बनी की बनी रहें ताकि उनका काम चलता रहे। इसलिए काम को अटकाना, लटकाना, भटकाना यही उनकी आदत हो गई थी।”
मैं कई बार लिख चूका हूँ कि भारत के अभिजात वर्ग ने भ्रष्ट व्यवस्था की संरचना जानबूझकर कर की थी, ना कि नासमझी में। उनका पूरा ध्यान अपने आप को और अपने मित्रों को समृद्ध करना था और उन्हें धनी बनाना था। जनता को जानबूझकर गरीब रखना था, क्योंकि गरीब जनता को वह बहला-फुसलाकर, लॉलीपॉप देकर वोट पा सकते थे।
आज प्रधानमंत्री मोदी ने भी यही कहा है।
अधपकी, बेमेल खिचड़ी विपक्ष की रणनीति अब स्पष्ट हो चुकी है. चूंकि इन्हे पता है की ये प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा बनायी हुई नीतियां और किये जाए कार्यो से उनका रचनात्मक विनाश (creative destruction) हो जायेगा.
स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस के शासकों ने एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण किया जिसमें जनता की भलाई और सेकुलरिज्म के नाम पर अपने आप को, अपने नाते रिश्तेदारों और मित्रों को समृद्ध बना सकें. अपनी समृद्धि को इन्होंने विकास और सम्पन्नता फैलाकर नहीं किया, बल्कि जनता के पैसे को धोखे और भ्रष्टाचार से अपनी ओर लूट कर किया. यह समझ कई देशो की राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था के अध्ययन और भ्रमण से समझ में आयी.
मैं जोर देना चाहता हूँ कि ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था की संरचना जानबूझकर कर की गयी थी, ना कि नासमझी में. उनका पूरा ध्यान अपने आप को और अपने मित्रों को समृद्ध करना था और उन्हें धनी बनाना था. जनता को जानबूझकर गरीब रखना था, क्योंकि गरीब जनता को वह बहला-फुसलाकर, लॉलीपॉप देकर वोट पा सकते थे.
शक्तिशाली अभिजात्य वर्ग अक्सर आर्थिक प्रगति के खिलाफ खड़े हो जाते है, क्योकि वह अपने हित को – अपनी constituency – जैसे कि अपनी सीट, अपना उद्योग, अपना NGO – सुरक्षित रखना चाहते है. उन्हें डर है कि आम जनता अगर सशक्त हो गयी तो उनका रचनात्मक विनाश हो जायेगा. उनकी आर्थिक स्थिति खो जाएगी. उन्हें अपने विशेषाधिकार खोने का डर है. और इसीलिए “वे” ग्रोथ या विकास पे बांधा डाल देते है, और हमारी आँखों पे पट्टी.
अतः बेमेल विपक्ष प्रधानमंत्री मोदी से निपटने के लिए चार रणनीतियों का सहारा ले रहा है.
प्रथम, सफ़ेद झूठ बोलकर मोदी सरकार पे भ्रष्टाचार का ठप्पा लगाना या फिर उनकी विश्वसनीयता पे चोट पहुंचना. इस रणनीति के तहत रफाल लड़ाकू विमानों की खरीद पे जान-बूझकर झूठ का सहारा लेना और बेबुनियाद आरोप लगाना कि इस डील में भ्रष्टाचार हुआ है. इसी प्रकार, जस्टिस लोया की हृदयगति से निधन को षड्यंत्र बताना, जबकि हार्ट अटैक के समय उनके साथ दो सहयोगी जज उपस्थित थे. इसी श्रेणी में अमित शाह के पुत्र, अजित डोवाल के पुत्र, अरुण जेटली पे दिल्ली क्रिकेट में भ्रष्टाचार के झूठे आरोप भी आते है.
द्वितीय, भारत के लोकतान्त्रिक संस्थानों की विश्वसनीयता पे प्रश्नचिन्ह लगाना और यह कहना कि इन संस्थानों की मिलीभगत से ही एक गरीब, अति सामान्य परिवार का पुत्र सत्ता में आया. इस श्रेणी में सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीशों की प्रेस कांफ्रेंस, EVM को हैक करने का असत्य आरोप, सीबीआई निदेशक की नियुक्ति और फिर हटाने पे प्रश्नचिन्ह जबकि इस प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी सम्मिलित है, RBI पे फ़ालतू का बखेड़ा खड़ा करना, GST की मीटिंग में कर प्रस्तावों पे सहमति देना, लेकिन बाहर आकर मोदी सरकार को बदनाम करना इत्यादि आते है.
एक तरह से विपक्ष चाहता है कि संवैधानिक संस्थाए घबरा कर समर्पण कर दे और उन्हें कागजी बैलट पेपर के द्वारा वोटो की लूट या फिर सुप्रीम कोर्ट में किसी फर्जी केस में सरकार को शर्मिंदा या कमजोर करने का अवसर मिले. नोट करिये कि राम मंदिर, EVM की विश्वसनीयता पे प्रश्नचिन्ह, रफाल, आधार कार्ड, सीबीआई निदेशक, क्रिस्चियन मिशेल, लोया इत्यादि केसो में कांग्रेस के वकील ही सामने क्यों है?
तृतीय, बेमेल, पारस्परिक विरोधी और अनैतिक गठबंधन बनाना और यह आशा करना कि गठबंधन वाली पार्टियों का कुल वोट भाजपा के वोट से अधिक होगा.
चतुर्थ, भाजपा के कोर समर्थको को विभाजित करना या उनके मन में हृदय से प्रिय मुद्दों के बारे में मोदी सरकार की प्रतिबद्धता के बारे में संदेह उत्पन्न करना. इस श्रेणी में राम मंदिर निर्माण की कोर्ट द्वारा सुनवाई में जानबूझकर अड़चन पैदा करना, तीस वर्ष पुराने SC एक्ट पे सुप्रीम कोर्ट की मदद से कटुता फैलाना, सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में सबूत मांगना, सबरीमाला में विशेष आयु की महिलाओ का प्रवेश करवाना (जिससे कोर समर्थको के आत्मसम्मान पे चोट लगे जिसके लिए वे मोदी सरकार को दोषी ठहराएंगे), JNU में भारत के टुकड़े की मांग करने वालो का समर्थन करना (जिससे कोर समर्थको को तुरंत कार्रवाई ना होने पे निराश होना पड़े) जैसी करतूते शामिल है.
यह चुनाव विपक्ष का चोला ओढ़े अभिजात्य वर्ग के आस्तित्व का सवाल है. तभी वे झूठ, छल, कपट का सहारा ले रहे है. न कि चुनाव जीतने के लिए वे यह बतलाये कि उनकी नीतिया क्या होगी.
प्रधानमंत्री मोदी जी की फिक्की में दिए गए संबोधन को आपने देखा या पढ़ा होगा. वह कहते है कि आजादी के बाद के 70 सालों में हमारे यहां एक ऐसा सिस्टम बना जिसमें गरीब को बहुत छोटी-छोटी चीजों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था. उस गरीब को बैंक अकाउंट खुलवाना है, तो सिस्टम आड़े आ जाता था, उसे गैस कनेक्शन चाहिए, तो दस जगह चक्कर लगाना पड़ता था. अपनी ही पेंशन पाने के लिए, स्कॉलरशिप पाने के लिए यहां-वहां कमीशन देना होता था.
प्रधानमंत्री जी आगे कहते है कि कोई भी नौजवान अपने दम पर जैसे ही कुछ करना चाहता है, उसके सामने पहला सवाल यही होता है कि पैसे कहां से आएंगे. वह पूछते है कि जब सरकार में बैठे कुछ लोगों द्वारा बैंकों पर दबाव डालकर कुछ विशेष उद्योगपतियों को लोन दिलवाया जा रहा था, तब पहले की सरकार में बैठे लोग जानते थे, बैंक भी जानते थे, उद्योग जगत भी जानता था, बाजार से जुड़ी संस्थाएं भी जानती थीं कि ये गलत हो रहा है. ये यूपीए सरकार का सबसे बड़ा घोटाला था. कॉमनवेल्थ, टू जी, कोयला, इन सभी से कहीं ज्यादा बड़ा घोटाला. ये एक तरह से सरकार में बैठे लोगों द्वारा उद्योगपतियों के माध्यम से जनता की गाढ़ी कमाई की लूट थी.
वह बतलाते है कि सरकार GST इसलिए ला रही है क्योंकि सिस्टम जितना पारदर्शी होगा, उतना ही गरीबों का लाभ होगा. इसके अलावा फॉर्मल सिस्टम की वजह से उन्हें आसानी से बैंकों से क्रेडिट मिलेगा, रॉ मैटेरियल की गुणवत्ता बढ़ेगी और लॉजीस्टिक्स की कॉस्ट भी घटेगी. यानि ग्लोबल बिजनेस में छोटे उद्यमी भी ज्यादा कंपटीटिव होंगे.
वह पूछते है कि क्यों ऐसा हुआ कि बिल्डरों की मनमानी की खबर पहले की सरकार तक नहीं पहुंची. मध्यम वर्ग पिस रहा था, जिंदगी भर की कमाई बिल्डर को देने के बाद भी उसे घर नहीं मिल रहे थे, और फिर भी कुछ ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे थे. क्यों? RERA (रियल स्टेट में होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने का कानून) जैसे कानून पहले भी तो बनाए जा सकते थे, लेकिन नहीं बने. मध्यम वर्ग की इस दिक्कत को इस सरकार ने ही समझा और कानून बनाकर बिल्डरों की मनमानी पर रोक लगाई.
प्रधानमंत्री जी ने अर्थव्यवस्था की मजबूती दर्शाने के लिए कुछ आंकड़े भी बताये. वह आप उनके सम्बोधन में पढ़ सकते है.
मैं लगातार अपने लेखो में यह लिखता रहा हूँ कि प्रधानमंत्री मोदी भारत में अभिजात वर्ग का रचनात्मक विनाश कर रहे है. स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस के शासकों ने एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण किया जिसमें जनता की भलाई और सेकुलरिज्म के नाम पर अपने आप को, अपने नाते रिश्तेदारों और मित्रों को समृद्ध बना सकें. अपनी समृद्धि को इन्होंने विकास और सम्पन्नता फैलाकर नहीं किया, बल्कि जनता के पैसे को धोखे से और भ्रष्टाचार से अपनी ओर लूट कर किया.
यह समझ कई देशो की राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था के अध्ययन और भ्रमण से समझ में आयी.
मैं जोर देना चाहता हूँ कि ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था की संरचना जानबूझकर कर की गयी थी, ना कि नासमझी में. उनका पूरा ध्यान अपने आप को और अपने मित्रों को समृद्ध करना था और उन्हें धनी बनाना था. जनता को जानबूझकर गरीब रखना था, क्योंकि गरीब जनता को वह बहला-फुसलाकर, लॉलीपॉप देकर वोट पा सकते थे.
पारिवारिक संपत्ति या या भ्रष्टाचार से अर्जित किए हुए धन के बलबूते पर लोगों ने उद्योग का प्लान बनाया. उस उद्योग को बढ़ाने के लिए उन्होंने सरकारी बैंकों से दिल्ली में “पहचान” के बूते करोड़ों-अरबों का लोन ले लिया, जबकि उनके उद्योगों का आधार, संरचना और सफलता संदिग्ध थी.
मैंने पूछा था कि क्या एक रिक्शे वाला या कामवाली कहीं से कोई गारंटर ला सकती है जिससे उसे बैंक से लोन मिल जाएगा? और किस ब्याज पे मिलेगा?
बीमारी का मारा हुआ व्यक्ति, जर्जर शिक्षा व्यवस्था से बाहर निकला हुआ व्यक्ति, लोन के लिए दर-दर भटकता व्यक्ति, क्या वह ट्रेन के सस्ते टिकट के चक्कर में पूरी जिंदगी उसी अभिजात वर्ग को वोट नहीं देगा जिसने उसे जानबूझकर गरीब रखा है? क्योंकि उसे सस्ते टिकट में ही एक आशा की किरण दिखाई देती है. उस सस्ते टिकट के चक्कर में खेल कहीं और हो जाता है.
कैसे हमारे नवयुवक और नवयुवतियां इस अभिजात्य वर्ग के जमे-जमाये युवाओ से मुकाबला करेंगे? उनकी माता और पिता जी ने तो भ्रष्टाचार और पहचान के बूते पे ना केवल उद्यम खड़े कर दिए, बल्कि नए लोगो के सामने अनगिनत बाधाएँ खड़ी कर दी जिससे उनके निकम्मे लालो को कोई चुनौती ना दे सके.
प्रधानमंत्री मोदी जी इस अभिजात वर्ग की जड़ों को काट रहे है, उन जड़ों को जो भारत भूमि में बहुत अंदर तक घुस गई थी.
तभी तो अभिजात वर्ग, जिसमे बिकाऊ पत्रकार शामिल है, इतना विरोध कर रहा है …!
सोनिया राज़ में तीस लाख साठ हज़ार करोड़ रुपये अवैध रूप से भारत से बाहर भेजा गया.
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आज किसी राष्ट्र में अभिजात्य वर्ग द्वारा की गयी चोरी के बारे में रिसर्च करते हुए एक थिंकटैंक (Global Financial Integrity) की रिपोर्ट पढ़ने लगा. सोचा, भारत के भी आकंड़े देख लिए जाए.
इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2004 से 2013 के दौरान भारत से 510 बिलियन डॉलर या एक डॉलर का 60 रुपये भाव के अनुसार 3060000 करोड़ रुपये (तीस लाख साठ हज़ार करोड़ रुपये) से अधिक धन अवैध रूप से भारत से बाहर भेजा गया.
जी हाँ, तीस लाख साठ हज़ार करोड़ रुपये. यानि कि यह धन सोनिया सरकार के 10 वर्षो के शासन के समय गैरकानूनी तरीके से भारत से ट्रांसफर किया गया.
इस दौरान, अवैध रूप से धन ट्रांसफर करने के मामले में भारत विश्व में चौथे स्थान पे था; पहले तीन स्थान पे चीन, रूस और मेक्सिको थे. औसतन हर वर्ष लगभग 51 बिलियन डॉलर या 306000 करोड़ रुपये (तीन लाख साठ हज़ार करोड़ रुपये) भारत से बाहर अवैध रूप से भेजे जाते थे. एक तरह से भारत के सालाना रक्षा बजट से भी अधिक.
28 जनवरी 2019 में वर्ष 2015 की रिपोर्ट रिलीज़ हुई. इसके अनुसार वर्ष 2015 में कुल 9.8 बिलियन डॉलर या 58000 करोड़ रुपये अवैध रूप से भारत से बाहर भेजा गया.
इस वर्ष किसकी सरकार थी: प्रधानमंत्री मोदी की.
प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा कागजी या फर्जी कम्पनिया (shell companies) को बंद करना, अवैध धन संचित करने वाले देशो जैसे कि मॉरिशस, सेशेल्स, स्विट्ज़रलैंड इत्यादि देशो से संधि करके ऐसी चोरी पे रोक लगाना, नोटबंदी और बैंक अकाउंट को आधार से लिंक करने के कारण ऐसे गैरकानूनी ट्रांसफर एक बिलियन डॉलर या 6000 करोड़ रुपये से भी कम हो सकते है. वर्ष 2018 में GST के कारण ऐसे ट्रांसफर घटकर कुछ सौ करोड़ ही रह जायेगे.
यह होता है सही नीतियों और दृढ़ नेतृत्व का असर.
बाकी काला धन समाप्त करने के नारे लगाने और लॉलीपॉप पकड़ाने को राहुल और केजरीवाल तो है ही.
प्रधानमंत्री मोदी पे विश्वास बनाये रखे।
✍🏻अमित सिंघल जी की पोस्टों से संग्रहित