मुख्य न्यायाधीश उत्तर प्रदेश को एक खुला पत्र

श्री ओमप्रकाश सुनरैया (पूर्व जिला सत्र न्यायाधीश) द्वारा
माननीय मुख्य न्यायाधीश उत्तर प्रदेश को एक खुला पत्र:

मान्यवर,
आप इतने वरिष्ठ न्यायाधीश हैं। आपको यह स्मरण कराने की आवश्यकता नहीं है कि मुख्य न्यायाधीश या न्यायाधीश के नाते आपकी समस्त शक्तियां, समस्त अधिकार, समस्त संसाधन आपके पास इस देश की, उत्तर प्रदेश की अमानत हैं,उसमें से एक कण मात्र भी आपकी निजी संपत्ति नहीं है। आप अपनी व्यक्तिगत रुचि या अरुचि के लिए अपने इन अधिकारों का प्रयोग बिलकुल नहीं कर सकते। आप अच्छी तरह से अवगत हैं ही कि अत्यंत अपवाद स्वरूप ही मुख्य न्यायाधीश किसी मामले में स्वतः संज्ञान लेते हैं। आप इस तथ्य से भी अच्छी तरह से अवगत होंगे कि अत्यंत अपवाद स्वरूप ही मुख्य न्यायाधीश किसी मामले में अर्धरात्रि में कोई आदेश पारित करते हैं। सामान्य तौर से स्क्रूटनी और मोशन हियरिंग में सफल होने पर ही विपक्ष को नोटिस जारी किया जाता है।पर दंगाइयों के चित्र सार्वजनिक स्थानों के मामले में पेटीशन आपकी ही थी, आपने ही उसकी स्क्रूटनी की, आपने ही उसकी मोशन हियरिंग की और आपने ही उसे स्वीकार भी कर लिया। कोई मामला लोकहित वाद (PIL) है या नहीं इसकी स्पेशल स्क्रूटनी भी होनी चाहिये। वह स्क्रूटनी भी आपने स्वयं ही कर ली।और इस मामले को लोक हित वाद मानकर पंजीकृत करने का आदेश भी दिया। विपक्ष को लखनऊ से प्रयागराज तक आने, सोने, खाने, नित्य कर्म और तैयारी के लिए केवल आठ से दस घंटे ही का समय दिया। सुनवाई भी आपने रविवार को अवकाश के दिन रखी। सुनवाई स्वयं की।आदेश भी स्वयं ही पारित किया।
इस प्रकार आपने अपने आचरण से इस मामले को सर्वाधिक महत्वपूर्ण श्रेणी में रख दिया। आपके उच्च न्यायालय में उस समय लगभग साढ़े नौ लाख मामले लंबित थे। पूरे देश में सर्वाधिक पुराने मामले आपके ही उच्च न्यायालय में लंबित हैं। जिन दंगाइयों के चित्र थे, उनमें से कोई भी आपके सामने शिकायत करने नहीं आया। सामान्य जनता तो दंगाइयों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही से बहुत खुश थी। उत्तर प्रदेश में दंगे एकदम रुक गये थे। फिर आखिर ऐसा क्या कारण था कि आपने इस अनावश्यक और तुच्छ मामले को इतना महत्व दिया?!! चौदह पृष्ठों के अपने दिनांक 09/03/2020 के आदेश में भी आपने स्पष्ट नहीं किया कि आखिर क्यों आपने साढ़े नौ लाख लंबित और पोस्टर के इस मामले से कई गुना अधिक गंभीर अनगिनत अलंबित मामलों में से इसी मामले को इतना असाधारण महत्व दिया?! यह न्यायिक आदेश लिखने की सामान्य मर्यादा है, जिससे आप निश्चित रूप से अवगत होंगे। फिर इस देश के,उत्तर प्रदेश के ट्रस्टी होने के नाते भी, यह आपका दायित्व था कि आप स्पष्ट करते कि आपने क्यों इस मामले को इतना असाधारण महत्व दिया।
आपने अपने विस्तृत आदेश में भी कोई कारण नहीं बताया इससे स्पष्ट है कि आपके पास कोई कारण है ही नहीं। इससे स्पष्ट है कि आपने मुख्य न्यायाधीश के नाते प्राप्त शक्तियों का प्रयोग ट्रस्टी की तरह नहीं बल्कि स्वयं की संपत्ति की तरह किया ।इस तरह न्यास भंग कर के आपने अपने पद का दुरूपयोग किया है।
पीड़ित भी आप, और न्यायाधीश भी आप। दुनिया की किसी भी न्यायिक प्रणाली में ऐसा नहीं होता। प्राकृतिक न्याय के यह सर्वथा विरुद्ध है। यह आप नहीं जानते हों ऐसा कैसे हो सकता है?! फिर ऐसा क्यों किया आपने?!
हर न्यायाधीश की ही तरह मुख्य न्यायाधीश भी लोक सेवक होता है। उत्तर प्रदेश के चौबीस करोड़ लोगों और देश के 138करोड़ लोगों में से अधिकतर प्रसन्न थे कि उत्तर प्रदेश शासन के कदमों से दंगे रुक गये। दंगाइयों से नुकसान की भरपाई होनी चाहिये यह तो सुप्रीम कोर्ट सहित इस देश की जनता जाने कब से चाहती है। दंगाइयों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही हो यह भी सभी चाहते ही हैं।फिर आपने किनकी भलाई के लिए अपनी अमानत की शक्तियों का ऐसा असाधारण प्रयोग किया?!!
आपने पद धारण करने के पूर्व संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा भक्ति रखने की प्रतिज्ञा ली थी। आप अच्छी तरह जानते होंगे कि’” हम भारत के लोग “ इस संविधान के केंद्र में है। इसलिये संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा भक्ति रखने की प्रतिज्ञा का फलितार्थ है कि पूरे 138करोड़ भारतीयों के प्रति सच्ची श्रद्धा भक्ति रखी जाये। ‘न्याय और समता पूरे 138 करोड़ भारतीयों के लिए न कि केवल उन मुट्ठी भर लोगों के लिए जिन पर आपकी नज़र जाती है या जो आपके न्यायालय तक पहुंच पाते हैं। आपके पास ऐसा कोई वैज्ञानिक या वस्तुनिष्ठ तरीका नहीं है जिससे आप 138करोड़ भारतीयों या 24करोड़ उत्तर प्रदेश के निवासियों का हित किस बात में है यह जान सकें। इसलिये इस बात की विराट संभावना रहती है कि जब आप अपने सामने आये एक छोटे से समूह के लिए स्वतः संज्ञान लेकर न्याय करने का प्रयास करते हैं तो एक कई गुना बड़े समूह के साथ अन्याय हो जाये।
सीमा रेखा का उल्लंघन करके कार्य करने से न केवल न्याय प्रणाली की प्रतिष्ठा पर आघात होता है वरन् न्यायपालिका पर व्यर्थ का बोझ भी बढ़ता है। आपने और सुप्रीम कोर्ट ने भी आपके आदेश की अपील में टिप्पणी की कि पोस्टर लगाने के संबंध में कोई प्रकट कानून नहीं है। आपने जो सारी कार्यवाही की है किस कानून में उसका प्रकट उल्लेख है??!!जिस कालेजियम के आधार पर आपकी और सारे सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट जजों की नियुक्तियां गत 27वर्षों से हो रही हैं, उस कालेजियम सिस्टम का कौन से कानून में उल्लेख है?!निर्भया के दोषी जिस क्यूरेटिव पेटीशन का लाभ उठा रहे हैं, उसका किस कानून में उल्लेख है?ऐसे अनगिनत उदाहरण दिये जा सकते हैं जब न्यायाधीशों ने अपने कर्तव्य पालन के लिए उन विधाओं का आविष्कार किया, जिनका उल्लेख कानून में नहीं है। फिर जिन्हें अपनी जान दांव पर लगा कर न्यायाधीशों समेत पूरे देश की आंतरिक और बाह्य शत्रुओं से से चौबीसों घंटे, बारह महीने, अहर्निश रक्षा करनी है, उन्हें क्यों नहीं अपने कर्तव्य पालन हेतु समयानुकूल विधा के आविष्कार का अवसर दिया जाना चाहिये?!
वास्तव में, पत्थरबाजों पर पैलेट गन चलायें या पानी की बौछार करें जैसे मामलों में हस्तक्षेप करके न्यायालय देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा को खतरे में डालते हैं ।न्याय पालिका को अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करना चाहिये यह आज व्यापक रूप से अनुभव किया जा रहा है।

साभार

SHARE