पंचतत्व ही भगवान ? – गुरुजी भू

क्या पंचतत्व ही भगवान है ?

वायु

सम्पूर्ण विश्व पांच मूल तत्वों से बना है, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। हमारा शरीर भी प्रकृति के इन पांच मूल तत्वों से बना है। ये पंचमहाभूत हमारी पंचेंद्रियों-घ्रणा स्वाद, श्रवण,स्पर्श और दृष्टि से सम्बंधित है। हमारे शरीर के सात उर्जा चक्र इन पंच महाभूतों से जुड़े है और इनमे किसी भी प्रकार का असंतुलन होने से हमारे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वहीँ हमारे घर में भी हर दिशा में किसी न किसी तत्व की प्रधानता होती है , जहाँ इनका असंतुलन होने पर प्रायः यह वास्तु दोष के रूप में हमारे सामने आता है।

बृहत् पराशर होरा शास्त्र के अनुसार पंचतत्व अग्नि,पृथ्वी,आकाश ,जल और वायु क्रमश: मंगल, बुध,बृहस्पति, शुक्र और शनि द्वारा नियंत्रित होते है।

अग्नि भुमिनभस्तो यावायवः क्रमतो द्विज ।
भौमदीना’ ग्रहाणां च तत्वानीति यथाक्रमम ।।

वायु’ पंचमहाभूतों की उत्पत्ति के क्रम में द्वितीय तत्व है। वह अन्य तत्वों से सूक्ष्म होने के कारण बहुत शक्तिशाली होते हैं। अमरकोश में वायु के वायु, वात, प्राण आदि बीस नाम गिनाए हैं (अ.कोश 1/1/61-63)। कहीं-कहीं इसके 150 तक नामों की गिनती भी है। वायु स्पर्श के गुण से पहचानी जाती है। पृथ्वी के जन्म से ही उसे चारों ओर से गैसों ने घेर रखा है, जिसे वायुमंडल कहते हैं। 12 मील की ऊंचाई पर कार्बन डाइऑक्साइड, 62 मील की ऊंचाई पर ऑक्सीजन तथा 80 मील की ऊंचाई पर नाइट्रोजन लुप्त हो जाती है।

अथर्ववेद में वायु को प्राण कहा है। प्राणशक्ति प्रदान करने वाला वायु है।यह वायु पिता के समान पालक, बन्धु के समान धारक, पोषक और मित्रवत सुख देने वाला है। यह जीवन देता है। वायु अमरत्व की निधि है। वह हमें जीवन प्रदान करता है।

संहिताओं में कहा गया है कि यदि अन्तरिक्ष को प्रदूषण से मुक्त करके शान्ति की कामना करते हो तो सर्वप्रथम वायु को प्रदूषणरहित करके, उसकी शान्ति अत्यावश्यक है।

ऋग्वेद के ऋषि कामना करते है कि प्रदूषण-मुक्त कल्याणकारी वायु मेरे चारों ओर बहे। वायु नीचे द्वार वाले (स्तर वाले) मेघ को अन्तरिक्ष और पृथ्वी की ओर प्रेरित करता है, उससे यह वायु सब औषधियों, वनस्पतियों और प्राणियों का राजा है क्योंकि जैसे कोई कृषक फलने और फूलने के लिये यव (जौ) आदि को जल से सींचता है, वैसे इसके कारण उत्पन्न वर्षा सम्पूर्ण भूमि को तर करती है।
प्रार्थना की गई है कि हे वायु! तुम औषधीय गुणों से युक्त ओस जल को प्राप्त कराओ और हानिकारक प्रदूषित वायु को हमारे मध्य से दूर ले जाओ। तुम ही शुद्ध एवं प्रदूषण-रहित होते हुए सम्पूर्ण औषधियों के भण्डार हो। इसलिये तुम्हें दिव्यशक्तियों का दूत कहा जाता है क्योंकि तुम्हीं सम्पूर्ण दिव्य शक्तियों से सम्पन्न, औषधीय तत्वों से युक्त हो।

वायु प्राणशक्ति की संचालक हैं लेकिन दिखाई नहीं पड़ती। ऋग्वेद के ऋषि बताते हैं “इनकी ध्वनि सुनाई पड़ती है लेकिन रूप नहीं दिखाई पड़ता – घोषा इदस्य श्रृण्विरे न रूपम्। (ऋ0 10.168.4) बिल्कुल ठीक कहते हैं, वायु का रूप नहीं होता। वायु की तीव्र गति आंधी है।
ऋग्वेद में स्पष्टतः वायु को सोम, अर्थात् प्राण वायु का रक्षक कहा है-“वायु: सोमस्य रक्षिता”

वैदिक साहित्यो में मुख्यतः दो प्रकार की वायुओं का वर्णन है। एक जो समुद्रपर्यन्त जाती है और दूसरी समुद्र से भी परे दूर देश तक बहती है। इनमें एक वायु शरीर के बल को प्राप्त कराती है और दूसरी वायु प्रदूषण को हटाती है। परन्तु इनमें भी ये 7 प्रकार की वायु के विभेद है – 1.प्रवह, 2.आवह, 3.उद्वह, 4. संवह, 5.विवह, 6.परिवह और 7.परावह।

1. #प्रवह : पृथ्वी को लांघकर मेघमंडलपर्यंत जो वायु स्थित है, उसका नाम प्रवह है। इस प्रवह के भी प्रकार हैं। यह वायु अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाती है। धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है जिससे ये मेघ काली घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं।

2. #आवह : आवह सूर्यमंडल में बंधी हुई है। उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्यमंडल घुमाया जाता है।

3. #उद्वह : वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है, जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है।

4. #संवह : वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है, जो नक्षत्र मंडल में स्थित है। उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर संपूर्ण नक्षत्र मंडल घूमता रहता है।

5. #विवह : पांचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रह मंडल में स्थित है। उसके ही द्वारा यह ग्रह चक्र ध्रुव से संबद्ध होकर घूमता रहता है।

6. #परिवह : वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं।

7. #परावह : वायु के सातवें स्कंध का नाम परावह है, जो ध्रुव में आबद्ध है। इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं।

#विशेष –
वेदर wether शब्द संस्कृत से लिया गया है इसकी उत्तपत्ति कुछ ऐसे हुई है –
वायु + आर्द्र = वायुर्द्र ( वायु और आर्द्र दोनो संस्कृत शब्द है)
वायुर्द्र = वायुद्र
वायुद्र = वायुदर
वायुदर = वियादर
वियादर = वेदर
ऐसी ही – आर्द्र नमीं या गीलेपन के लिए एक प्राचीन संस्कृत शब्द है। आर्द्र से ही आर्द्रता और शतद्रु बने हैं। आर्द्रता ArdratA, आर्द्रत्व Ardratva = नमी, गीलापन, moisture, wetness और शतद्रू (शत + आर्द्रु ) ऋग्वेद में मिलता है। अर्थ है ‘सौ धाराओं में बहने वाली यानी शतद्रु नदी जिसका आधुनिक नाम सतलुज है।

शतद्रु > शतदलु > शतलुद > सतलुज

 

साभार

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