सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए पदोन्नति में आरक्षण की शर्तों को कम करने से इनकार कर दिया है। कोर्ट ने कहा है कि राज्य अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने से पहले मात्रात्मक डेटा एकत्र करने के लिए बाध्य है। कोर्ट ने कहा है कि नागराज (2006) और जरनैल सिंह (2018) मामले में संविधान पीठ के फैसले के बाद शीर्ष अदालत कोई नया पैमाना नहीं बना सकती। इस मामले में कोर्ट ने 26 अक्टूबर 2021 को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि प्रमोशन में आरक्षण से पहले उच्य पदों पर प्रतिनिधित्व के आंकड़े जुटाना ज़रूरी है, साथ ही कोर्ट ने कहा कि प्रतिनिधित्व का एक तय अवधि में मूल्यांकन किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अवधि क्या होगी, इसे केंद्र सरकार तय करे। केंद्र/राज्यों से जुड़े आरक्षण के मामलों में स्पष्टता पर 24 फरवरी से सुनवाई शुरू होगी।
न्यायमूर्ति नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि राज्य अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता पर डेटा एकत्र करने के लिए बाध्य हैं। शीर्ष अदालत ने कहा कि वह अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता को निर्धारित करने के लिए कोई मानदंड निर्धारित नहीं कर सकती है। ये काम राज्य सरकार कर सकती है।
न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने विभिन्न राज्यों की ओर से पेश हुए अन्य वरिष्ठ वकीलों सहित सभी पक्षों को सुना था। केंद्र ने पीठ से कहा था कि यह सत्य है कि देश की आजादी के 75 साल बाद भी एससी/एसटी समुदाय के लोगों को अगड़े वर्गों के समान मेधा के स्तर पर नहीं लाया गया है। वेणुगोपाल ने दलील दी थी एससी और एसटी समुदाय के लोगों के लिए ग्रुप ‘ए’ श्रेणी की नौकरियों में उच्चतर पद हासिल करना कहीं अधिक मुश्किल है और वक्त आ गया है कि रिक्तियों को भरने के लिए शीर्ष न्यायालय को एससी, एसटी तथा ओबीसी के वास्ते कुछ ठोस आधार देना चाहिए।