हिंगोल की आध्यात्मिकता गंगा, नर्मदा और अलकनंदा से कम नहीं

बलूचिस्तान में शताब्दियों से एक हिंगोल नदी प्रवाहमान है। हम हिन्दुओं के लिए हिंगोल की आध्यात्मिकता गंगा, नर्मदा और अलकनंदा से कम नहीं है। हिंगोल हिंगलाज माता के शक्तिपीठ के लिए प्रसिद्ध है। यदि ये पीठ भारत मे होता तो देश के धनिक संस्थानों में इसका नाम होता। इस शक्तिपीठ के बारे में तो हम जानते हैं किंतु यहां होने वाली यात्रा के बारे में कम ही पता है। मित्रों इस यात्रा का पहला चरण एक अति प्राचीन ज्वालामुखी है। इसका नाम सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के नाम पर पड़ा है। इसे चंद्रगुप कहा जाता है।

बलूचिस्तान भारत के १६ महाजनपदों में से एक जनपद संभवत: गांधार जनपद का हिस्सा था। चन्द्रगुप्त मौर्य का लगभग ३२१ ई.पू. का शासन पश्चिमोत्तर में अफ़ग़ानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला था। जो लोग भारत के विश्वव्यापी होने पर संदेह करते हैं, उनके लिए चंद्रगुप जीता-जागता प्रमाण है। तीनसौ फ़ीट की ऊंचाई पर चढ़कर यहां पूजन किया जाता है। यहां की गीली मिट्टी को ऐसे ही घर ले जाया जाता है, जैसे हम गंगाजी को घर ले जाते हैं। वह मिट्टी सिर से लेकर पैर तक पोत ली जाती है।

ऐसे धर्मनिष्ठ हिन्दुओं को वापस लाने के प्रयास क्या हुए, देश मे आग लगा दी गई। ध्यान रखें विपरीत परिस्थितियों में धर्म पालन करना सहज नहीं होता। ये अल्पसंख्यक वीर हिन्दू हैं। सिर पर तलवार लटकी है लेकिन धर्म नहीं छोड़ते।

ये यात्रा रहस्यों से भरी पड़ी है। नानी के मंदिर या हिंगोल देवी का ये शक्तिपीठ क्षेत्र एक नई खोज के लिए चर्चा में आ गया है। ये नई खोज हिन्दू धर्म की प्राचीनता को और पुष्ट करेगी। यहां कुछ खोज लिया गया है, जिसने पश्चिम के खोजियों की नींद उड़ा रखी है।

बहुधा फेसबुक पर कहा जाता है, विश्व मे कहीं भी खुदाई होगी तो शिवाले ही प्राप्त होंगे, मस्जिद और चर्च नहीं। प्राकट्य रूप में सनातन संस्कृति विगत पंद्रह हज़ार वर्ष से अस्तित्व में है। सतत प्रवाहमान, अपनी परम्पराओं का निर्वहन करता सनातनी बरगद, जिसकी जड़े अत्यंत विशाल है।

हिंगोल नदी का क्षेत्र शक्तिपीठ कहा जाता है। माता हिंगलाज की अदृश्य चेतना से ये भू-भाग आज भी समृद्ध है। चूंकि माता की प्रतिमा स्वयम्भू होकर प्राकृतिक रूप से निर्मित है इसलिए इसकी निर्माण तिथि ज्ञात नहीं है। सनातनी संस्कृति में नदियों के किनारे विशाल शिव मंदिर बनाने की परंपरा रही है। ऐसा कोई मंदिर बलूचिस्तान की पवित्र नदी हिंगोल के किनारे न हो तो अटपटा लगता है। अब जो बात आप पढ़ने जा रहे हैं, वह अत्यंत अविश्वसनीय है किंतु पूर्णतः सत्य और तथ्यात्मक है।

सन २००४ में बलूचिस्तान की मकरान कोस्टलाइन पर एक हाइवे निर्माण के दौरान ये खुलासा हुआ कि हिंगलाज शक्तिपीठ के इस क्षेत्र में वैसा ही स्फिंक्स पाया गया है, जैसा मिस्र में ग्रेट पिरामिड के सामने खड़ा है। इसकी निर्माण तिथि सिंधु घाटी सभ्यता या उससे भी पूर्व की बताई जा रही है। यहां एशिया में स्फिंक्स मिलने की बात सुनकर खोजियों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। २००५ के बाद ही पुरातत्ववेत्ता यहां पहुंचने लगे थे।

अब तक पश्चिमी जगत मानता था कि स्फिंक्स का संबंध ग्रेट पिरामिड के निर्माताओं से है लेकिन बलूचिस्तान की खोज के बाद ये थियरी हमेशा के लिए बदल गई है। आपको याद होगा मेरा वह लेख, जिसमे मैंने बताया था कि मिस्र स्थित स्फिंक्स सनातनी धर्म का प्रतीक है। उस समय यहां के तथाकथित विद्वानों ने बहुत मज़ाक बनाया था। अब वे क्या कहेंगे?

जिस समय सिंधु घाटी सभ्यता अस्तित्व में थी, ठीक उसी समय या उससे पूर्व माकरान की इस अज्ञात सभ्यता का उदय हो चुका था। ये बात बलूच में चंद्रगुप्त मौर्य के उदय से भी बहुत पहले की है। ये अज्ञात सभ्यता सनातनी धर्म की वाहक थी। इस भारतीय स्फिंक्स की खास बातें जानिए।

१- स्फिंक्स नरसिंह का प्रतीक है। इजिप्ट के स्फिंक्स की परिकल्पना भी नरसिंह की ही थी।

२- प्रारम्भ में इसका चेहरा दाढ़ी-मूंछ वाला रहा होगा। इसका मुंह वहीं स्थित एक मंदिर के भग्नावेशों की ओर है। इस मंदिर में शिवलिंग हुआ करता था, जो अब नष्ट हो चुका है।
३- मंदिर के द्वार के बायीं ओर कार्तिकेय और दायीं ओर गणेश की विशाल प्रतिमाएं उत्कीर्ण की गई थी, जिनके अब मामूली निशान ही बाकी है।

३- मंदिर का गुम्बद और मंडप कक्ष के भग्नावेश भी अब तक अस्तित्व में हैं।

४- गोपुरम का कुछ हिस्सा सुरक्षित बचा है। यहां पर द्वारपाल उत्कीर्ण किये गए हैं।

५- २८ नवम्बर १९४५ को माकरान क्षेत्र में बड़ा भूकंप आया था। इस धर्म क्षेत्र का बहुत सा हिस्सा उसमे नष्ट हो गया।

शताब्दियों पूर्व जब अलबरूनी माकरान की राजधानी टीज़ पहुंचा तो उसने शिवालय की सुरक्षा करते इस सुंदर नरसिंह को देखा था। तब उसने लिखा था ‘ ये अल हिन्द की सरहद है।’

ह्वेनसांग के अकाउंट से पता चलता है कि सातवी शताब्दी में यहां बड़ा तीर्थ क्षेत्र था। यहां कई बौद्ध मठ और मंदिर थे और एक विशाल शिवालय भी था।

पहाड़ों को तराशने वाले वे अज्ञात लोग वैसे ही अदृश्य हो गए, जैसे माया सभ्यता और मिस्र की सभ्यताओं के लोग अदृश्य हो गए। जैसे सिंधु घाटी की सभ्यता चुपके से विलीन हो गई। कहा जाता है कि इन लोगों ने ही मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा बसाया था।

शिवपूजक सभ्यता नदियों के किनारे निवास करती है तो वहां बड़े शिवालय बनाने की परंपरा वैदिक काल से चली आ रही है। यदि हिंगोल नदी के किनारे स्फिंक्स और शिवाले बने थे तो इजिप्ट में भी कोई शिवालय अवश्य रहा होगा, जिसे समय की मार ने विलुप्त कर दिया। धर्मनिष्ठ बलूच सनातनियों ने उस समृद्ध सभ्यता के प्रमाण मिटने नहीं दिए हैं और अब तो ये क्षेत्र दुनिया की निगाहों में है इसलिए बामियान के बुद्ध की तरह नष्ट नहीं किया जा सकता।

झूठा इतिहास बदलना ही होगा
✍🏻विपुल विजय रेगे

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