“पैरों में जंजीर और गले में फन्दा”
कभी सोचा है-??- किसानों का “धन्धा” क्यों बांधा गया था…
सही क्या और गलत क्या -??-
क्या किसानों का “तीन अध्यादेश” के विरुद्ध आंदोलन उचित – है भी या नहीं ?
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सन 1963 में कोंग्रेसी सरकार ने एक कानून पास किया जिसका नाम था – “apmc act” … जिसके द्वारा किसानों की उपज पंजीकृत व्यापारी ही क्रय कर सकते थे।
उगाये किसान लेकिन उसे कही भी बेचने का अधिकार ही नही।
इस एक्ट में यह प्रावधान किया गया कि किसान अपनी उपज केवल सरकार द्वारा तय स्थान अर्थात सरकारी मंडी में ही बेच सकता है।
इस मंडी के बाहर किसान अपनी उपज नहीं बेच सकता। और इस मंडी में कृषि उपज की खरीद भी वो ही व्यक्ति कर सकता था जो apmc act में registered हो, दूसरा नही।
इन registered person को देशी भाषा में कहते हैं “आढ़तिया” यानि “commission agent”…..
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इस सारी व्यवस्था के पीछे कुतर्क यह दिया गया कि व्यापारी किसानों को लूटता है इस लिये सारी कृषि उपज की खरीद बिक्री -“सरकारी ईमानदार अफसरों” के सामने हो।
जिससे “सरकारी ईमानदार अफसरों” को भी कुछ “हिस्सा पानी” मिलें।
इस एक्ट आने के बाद किसानों का शोषण कई गुना बढ़ गया। इस एक्ट के कारण हुआ क्या कृषि उपज की खरीदारी करनें वालों की गिनती बहुत सीमित हो गई।
किसान की उपज के मात्र 10 – 20 या 50 लोग ही ग्राहक होते है। ये ही चन्द लोग मिल कर किसान की उपज के भाव तय करते है।
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मजे कि बात ये है कि :— फिर रोते भी किसान ही है कि :—
इस महगाई के दौर में – किसान को अपनी उपज की सही कीमत नही मिल है।
जब खरीददार ही – “संगठित और सिमित संख्या में” – होंगे तो – सही कीमत कैसे मिलेगी – ??-
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यह मार्किट का नियम है कि अगर अपने producer का शोषण रोकना है तो आपको ऐसी व्यवस्था करनी पड़ेगी जिसमें – “खरीददार” buyer की गिनती unlimited हो।
जब खरीददार ज्यादा होंगे तभी तो – किसी भी माल की कीमत बढ़ेगी।
लेकिन वर्तमान में चल रही – मण्डी व्यवस्था में तो – किसान की उपज के मात्र 10 – 20 या 50 लोग ही ग्राहक होते है।
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apmc act से हुआ क्या कि अगर किसी retailer ने ,किसी उपभोक्ता नें ,
किसी छोटे या बड़े manufacturer ने, या किसी बाहर के trader ने किसी मंडी से सामान खरीदना होता है तो वह किसान से सीधा नहीं खरीद सकता उसे आढ़तियों से ही समान खरीदना पड़ता है।
इसमें आढ़तियों की होगी चांदी ही चाँदी और किसान और उपभोक्ता दोनो रगड़ा गया।
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जब मंडी में किसान अपनी वर्ष भर की मेहनत को मंडी में लाता है तो buyer यानि आढ़तिये आपस में मिल जाते हैं और बहुत ही कम कीमत पर किसान की फसल खरीद लेते हैं।
याद रहे :– बाद में यही फसल ऊचें दाम पर उपभोक्ता को उबलब्ध होती थी।
यह सारा गोरख धंदा ईमानदार अफसरों की नाक के नीचे होता है।
एक टुकड़ा मंडी बोर्ड के अफसरों को डाल दिया जाता है।
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मंडी बोर्ड का “चेयरमैन” को लोकल mla मोटी रिश्वत देकर नियुक्त होता है। एक हड्डी राजनेताओं के हिस्से भी आती है। यह सारी लूट खसूट apmc act की आड़ में हो रही है।
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दूसरा सरकार ने apmc act की आड़ में कई तरह के टैक्स और commission किसान पर थोप दिए।
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जैसे कि :— किसान को भी अपनी फसल “कृषी उपज मंडी” में बेचने पर 3%, मार्किट फीस ,
3% rural development fund और 2.5 commission ठोक रखा है।
मजदुरी आदि मिलाकर यह फालतू खर्च 10% के आसपास हो जाता है। कई राज्यों में यह खर्च 20% तक पहुंच जाता है। यह सारा खर्च किसान पर पड़ता है।
बाकी मंडी में फसल की transportation ,रखरखाव का खर्च अलग पड़ता है।
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मंडियो में फसल की चोरी ,कम तौलना , आम बात है। कई बार फसल कई दिनों तक नहीं बिकती किसान को खुद फसल की निगरानी करनी पड़ती है। एक बार फसल मंडी में आ गई तो किसान को वह “बिचोलियों” द्वारा तय की कीमत पर,
यानि – ओने पोंने दाम पर बेचनी ही पड़ती है।
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क्योंकि कई राज्यों में किसान अपने राज्य की दूसरी मंडी में अपनी फसल नहीं लेकर जा सकता । दूसरे राज्य की मंडी में फसल बेचना apmc act के तहत गैर कानूनी है।
Apmc act सारी कृषि उपज पर लागू होता है चाहे वह सब्ज़ी हो ,फल हो या अनाज हो। तभी हिमाचल में 10 रुपये किलो बिकने वाला सेब उपभोक्ता तक पहुँचते पहुँचते 100 रुपए किलो हो जाता है।
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आढ़तियों का आपस में मिलकर किसानो को लूटना मैंने {लेखक ने} अपने आंखों से देखा है। मेरे पिताजी खुद एक आढ़तिया थे। उन्होंने ने हमेशा किसानों को उनकी फसल का सही दाम दिलवाने की कोशिश की। किसान मंडी में तब तक अपनी फसल नहीं बेचता था जब तक मेरे पिता जी बोली देने के लिये नहीं पहुँचते थे। किसान मेरे पिता जी को ट्रैक्टर पर बिठा कर खुद लेकर जाते थे। जिस फसल का retail में दाम 500 रुपये क्विंटल होता था सारे आढ़तिये मिलकर उसका दाम 200 से बढ़ने नहीं देते थे। ऐसे किसानों की लूट मैंने अपनी आंखों के सामने देखी है।
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मोदी सरकार द्वारा किसानों की हालत सुधारने के लिये तीन अध्यादेश लाएं गये हैं।
जिसमे निम्नलिखित सुधार किए गए हैं।
1. अब किसान मंडी के बाहर भी अपनी फसल बेच सकता है और मंडी के अंदर भी ।
2. किसान का सामान कोई भी व्यक्ति संस्था खरीद सकती है जिसके पास पैन कार्ड हो।
3. अगर फसल मंडी के बाहर बिकती है तो राज्य सरकार किसान से कोई भी टैक्स वसूल नहीं सकती।
4. किसान अपनी फसल किसी राज्य में किसी भी व्यक्ति को बेच सकता है।
5. किसान contract farming करने के लिये अब स्वतंत्र है।
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कई लोग इन कानूनों के विरुद्ध दुष्प्रचार कर रहें है।
जोकि निम्नलिखित हैं।
1. आरोप :— सरकार ने मंडीकरण खत्म कर दिया है ?
उत्तर :— सरकार ने मंडीकरण खत्म नहीं किया। मण्डियां भी रहेंगी।लेकिन किसान को एक विकल्प दे दिया कि अगर उसको सही दाम मिलता है तो वह कहीं भी अपनी फसल बेच सकता है। मंडी में भी और मंडी के बाहर भी।
2. आरोप :— सरकार msp समाप्त कर रही है ?
उत्तर :- मंडीकरण अलग चीज़ है msp नुयनतम समर्थन मूल्य अलग चीज़ है। सारी फसलें ,सब्ज़ी ,फल मंडीकरण में आते हैं msp सब फसलों की नहीं है।
3. आरोप :- सारी फसल अम्बानी खरीद लेगा
उत्तर :— वह तो अब भी खरीद सकता है – आढ़तियों को बीच में डालकर।
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यह तीन कानून किसानों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मुक्ति के कानून हैं।
आज इस सरकार ने किसानों पर – कोंग्रेस द्वारा लगाई हुई -“बन्दिश” को हटा कर,
“हर किसी को” अपनी उपज बेचने के लिये आजाद करके,
“पुरे देश का बाजार” किसानो के लिये खोल दिया है।
किसानो को कोई भी टैक्स भी नही देना होगा।
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जो भी लोग विरोध कर रहे है वो उन की अपनी समझ है,
इस सरकार से बढ़ कर कोई “किसान हितेषी” सरकार कभी नही बनी और भविष्य में भी कोई नही बनेगी।
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क्योकि ये मोदिया – बहुत अच्छे से जानता है कि – “किसान और जवान” – ही देश का आधार है।
✍🏻”साभार – मित्रगण”
संकलन और संसोधन – गिरधारी भार्गव
वो कहते हैं #सपने_मत_देखो क्योंकि सपने कभी सच नहीं होते ! कई साल पहले एक हिन्दुस्तानी ने ऐसा ही सपना देखा था। ऐसे कई लोग, जिन्होंने अपने बाल धुप में नहीं पकाए थे, उन्हें लगता था कि इसके सपने पूरे नहीं होंगे। उसका सपना था भारत में श्वेत क्रांति लाने का सपना | गुजरात का ‘आनंद’ नाम का छोटा सा शहर किसी दिन दुनियां के नक़्शे पर होगा | वर्गीश कुरियन भी जवानी में जब इस शहर में अपनी स्कालरशिप की वजह से भेजे गए तो उनका इरादा भी जैसे तैसे स्कालरशिप के पैसे के लिए टाइम पास करने का ही था | लेकिन यहाँ आकर उन्होंने सपने देखने शुरू कर दिए | उनका सपना था दूध की नदी बहा देने का सपना |
इस आदमी ने आस पास के किसानों को जोड़ कर कोआपरेटिव बना डाला | अमूल नाम का कोआपरेटिव जब बन भी गया तो लोगों ने उनपर हँसना मजाक उड़ाना नहीं छोड़ा | एक तो सपने देखता था, ऊपर से सपने भी असंभव देख रहा था ये आदमी ! 1960 के दशक में एक तो इसके सामने बाजार में प्रतिस्पर्धा के लिए आरे डेरी, बॉम्बे मिल्क स्कीम, और पोलसन डेरी जैसे स्थापित नाम थे | इसके साथ ? इसके साथ कुछ अंगूठा छाप टाइप किसान थे, दो एक इंजिनियर दोस्त ! व्यापार का कोई अनुभव नहीं | इनके पास बेचने के लिए भैंस का दूध था, बफैलो बेल्ट यू सी ! और फिर भी सपने देखने की जुर्रत ! मजाक उड़ाना ही चाहिए |
दूध ज्यादा दिन तो सहेजा नहीं जा सकता, क्योंकि खराब होगा और उस जमाने में मिल्क पाउडर सिर्फ गाय के दूध से बनता था | कुरियन जब माल बेचने निकले तो पुछा गया कि मिल्क पाउडर बना सकते हो ? इनके साथ इनके साथी इंजिनियर थे एच.एम.दलया और उन्होंने कह दिया हां जी हमने भैंस के दूध से मिल्क पाउडर बनाने की विधि खोज ली है | कुरियन जानते थे मिल्क पाउडर सिर्फ गाय के दूध से बनता है, लेकिन वो उस समय चुप रहे | बाद में दोनों ने मिलकर भैंस के दूध से मिल्क पाउडर बनाने की विधि भी खोज निकाली और फिर बिस्कुट की फैक्टरियों में अमूल का मिल्क पाउडर बिकने लगा | ये अमूल की पहली सफलता थी | जिन्हें सपने देखने से मना किया जा रहा था, वो लोग सपने देखने से पूरा करने की तरफ निकल चुके थे |
रास्ते में एक ही रोड़ा आया हो ऐसा भी नहीं था | बाजार में घुसने की कोशिश करने वाले हरेक इंसान को पता होता है कि पहले से धंधा कर रहे लोग कम्पटीशन कैसे कैसे रोकते हैं | दूध से ये लोग बटर भी बना कर बेचते थे और मक्खन का बाजार शेयर मार्केट जैसा था | मतलब हर रोज़ दाम ऊपर नीचे होगा | कुरियन अड़ गए, कहा बटर तो फिक्स रेट पर ही बिकेगा | मुंबई और आस पास के बुजुर्गों को शायद याद होगा सब्जी, शेयर, पेन ड्राइव, मेमोरी कार्ड वगैरह के बाजार के तरह रोज मक्खन का भाव ऊपर नीचे होना | कुरियन ने इसे भी बदल डाला | अब मक्खन एक ही फिक्स रेट पर बिकता है, सप्लाई कम है, कह कर मुनाफाखोरी की संभावना ही नहीं छोड़ी गई | किसानों से कम पर खरीद के ग्राहक को महंगा बेचना बंद करना भी किसी दिन सपना ही था |
सपने मत देखो कहने वाले बुद्धूजीवी अगर कभी पत्नी की मदद करने चले जाएँ तो उन्हें शायद पकाने में धारा तेल इस्तेमाल होता दिख जायेगा | घर के पास ही कहीं ना कहीं मदर्स डेरी भी दिखी होगी, सब्जी कभी कार में बैठे बैठे लेने के लिए ड्राईवर को ‘सफल’ वाली दुकान में भी भेजा होगा | धारा, ऑपरेशन गोल्डन फ्लो का, मदर्स डेरी ऑपरेशन फ्लड का नतीजा है जो कुरियन का ही सपना था | सफल भी उनके कोआपरेटिव मॉडल पर ही बना है | ऐसे ही सपनों पे आप सत्तर के दशक के लाइसेंस परमिट राज में अपने राजनैतिक आकाओं की पेज थ्री पार्टी में बैठ कर हँसते रहे हैं | ग्राहक को सीधा किसान से जोड़ देने वाले ऐसे सपनों से दलालों को दिक्कत होना स्वाभाविक भी है | चाहे सब्सिडी का पैसा हो या मनरेगा का, सीधा बैंक खाते में डालने पर होने वाली बिचौलियों को दिक्कत बिलकुल हमारी समझ में आती है |
बाकी वो बिना प्रमाण ही गांधी जी के नाम में जोड़े जाने वाले जुमले की तरह, पहले आपने जनसाधारण पे ध्यान नहीं दिया, फिर हमारी कोशिशों पर आप हंस चुके हैं, अब नित नयी फर्जीवाड़े की तकनीकों से विरोध में लड़ने उतरे हैं | आइये-आइये, अब बस हमारा जीतना बाकी है |
साभार
✍🏻आनन्द कुमार